कुछ नाटक इतनी खूबसूरती और मुकम्मल तरीके से लिखे गए होते हैं कि वो time-travelling machine का काम करते हैं। और उस time-travelling machine में लगे होते हैं आईने – जो कि दिखाते हैं कि देखो पहले भी यही हाल था, हाल अब भी यही है – अब तरक्की जिसे तुम कहते हो – वो तुम जानो। तो ऐसा ही एक नाटक है हबीब तनवीर साहब का आगरा बाज़ार।
अदना, गरीब, मुफलिस, जरदार पैरते हैं,
– नज़ीर अकबराबादी
इस आगरे में क्या-क्या, ऐ यार, पैरते हैं।
जाते हैं उनमें कितने पानी में साफ सोते,
कितनों के हाथ पिंजरे, कितनों के सर पे तोते।
कितने पतंग उड़ाते, कितने मोती पिरोते,
हुक्के का दम लगाते, हँस-हँस के शाद होते।
सौ-सौ तरह का कर कर बिस्तार पैरते हैं,
इस आगरे में क्या-क्या, ये यार, पैरते हैं॥
जैसा नाम ठीक वैसा setup – पूरी कहानी आगरा के बाज़ार के बीच चलती है जहाँ कोई भी मुख्य पात्र नहीं है – मुख्य पात्र है वो बाज़ार और समय जो अपने लोगों और situations से बना हुआ है।
और जिन्होंने भी नज़ीर अकबराबादी को थोड़ा सा भी पढ़ा है या सुना है वो जानते होंगे कि उनके शब्दों में क्या जादू होता है। और वो जादू यहाँ मिलेगा – प्रत्यक्ष रूप से। पूरी कहानी उनके समय में चलती है – बस इतना है कि वो सामने नहीं आते पर पूरी बाज़ार, बाज़ार में आने वाले लोग, बाज़ार के दुकानदार, सब उन्हीं की नज़्म गाते और उन पर बातचीत करते दिखते हैं।
टुक हिर्सो-हवा[(लालच लोभ)] को छोड़ मियां, मत देस विदेश फिरे मारा।
– नज़ीर अकबराबादी
क़ज़्ज़ाक़ अजल[काल, मृत्यु] का लूटे है, दिन रात बजाकर नक़्क़ारा।
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतर क्या गोई पल्ला सर भारा।
क्या गेहूं, चावल, मोंठ, मटर, क्या आग, धुंआ और अंगारा।
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥
एक फकीर का पात्र है जो समय समय पर आता है और जो भी नाटक में अभी अभी घटा है उस पर नज़ीर अकबराबादी की कुछ पंक्तियाँ सुना के जाता है।
ग़ालिब, मीर, ज़ौक़ – तीनों का जिक्र है। और दिखता है कैसे समय बदल रहा था – कैसे आगरा के जरिए पूरे हिंदुस्तान की मानसिक हालत बदल रही थी – जब अंग्रेजों ने अपना कब्जा करना शुरू कर दिया था। कैसे दो किताब छापने वाले बात करते हैं कि किताबों का ज़माना खत्म हो रहा है – अखबार बेचो।
न मिल ‘मीर’ अबके अमीरों से तू,
– नाटक – आगरा बाज़ार
हुए हैं फकीर उनकी दौलत से हम।
कैसे शेर-शायरी का ओहदा इतना ऊंचा माना जाता था – शेर-ओ-शायरी के तथाकथित (so-called) ठेकेदारों के हिसाब से कि मामूली चीजें जैसे – तरबूज, ककड़ी, होली, दिवाली, ईद, रोटी, मेला, तैराकी, इत्यादि – इन पर शायरी करना नीची बात है और जो शायर ये करता भी है वो शायर नहीं। और नज़ीर अकबराबादी को इन सब चीजों पर लिखने के कारण ही आवामी शायर कहा जाता है।
किताबवाला : कुफ्री-इलहाद (नास्तिकता) का दौर है। इस दौर को बदल देने के लिए ब-खुदा किसी मुजाहिद (धर्मयुद्ध का योद्धा, जिहाद करने वाला) की जरूरत है। फी-जमाना दर्दमंद तो शायद बहुत हैं मगर मुजाहिद कोई नहीं।
हमजोली : जमाने को जरूरत दरअसल मुजाहिद की नहीं, मौलाना, बल्कि इंसान की है। इंसान कहीं नजर नहीं आता।
– आगरा बाज़ार नाटक
कहानी बहुत सरल है और उसी वक़्त उतनी ही जटिल भी- मतलब देखने मे सरल है – एक धागे से बुनी हुई पर ध्यान से देखने और समझने पर लगेगा कि इसके रेशे कहीं बहुत भीतर तक जुड़े हुए हैं। इतने भीतर तक कि उनके सिरे आज के समय में पाए जा सकते हैं।
बाज़ार की हालत बहुत खस्ता है, गरीबी बढ़ रही है लेकिन बाज़ारवाद कम नहीं हो रहा। किताबें कम हो रही हैं, अखबार बढ़ रहे हैं। भ्रष्टाचार तब भी था और बहुत ग़ज़ब ढंग से दिखाया गया है। और कहानी सरल सी इतनी है कि एक ककड़ी वाला अपनी कम बिकती ककड़ी के लिए कोई शायर ढूँढ रहा है जो उसकी ककड़ी पर शायरी लिख दे जिससे उसकी ककड़ी की बिक्री बढ़ जाए। उसके बीच में उस दुनिया के ये सारे पहलू दिखते हैं।
तो कुछ अगर बहुत अच्छा पढ़ना है जो गुदगुदाएगा, थोड़ा या ज्यादा (आपकी अपनी संवेदना के आधार पर) आईना दिखाएगा, और कुछ बहुत अच्छी शायरी पढ़ने को मिलेंगी – तो हबीब तनवीर साहब के नाटक आगरा बाज़ार को पढिए।
आगरा बाज़ार (नाटक) – Click Here
आगरा बाज़ार की कुछ पंक्तियाँ यहाँ दे रहा हूँ।
पूछा किसी ने यह किसी क़ामिल (पूरे, पहुँचे हुए) फक़ीर से।
यह मेहरो-माह (सूरज-चाँद) हक़ ने बनाये हैं काहे के।।
वह सुनके बोला, बाबा, खुदा तुझको खैर दे।
हम तो न चाँद समझें, न सूरज हैं जानते।
बाबा, हमें तो ये नजर आती हैं रोटियाँ।।
रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो।
मेले की सैर ख़्वाहिशे बागो चमन न हो॥
भूके ग़रीब दिल की खु़दा से लगन न हो।
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो,
अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियां॥
कपड़े किसी के लाल हैं रोटी के वास्ते।
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते॥
बांधे कोई रुमाल हैं रोटी के वास्ते।
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते॥
जितने हैं रूप सब यह दिखाती हैं रोटियां।
यह दुख वह जाने जिस पे कि आती है मुफ़्लिसी
मुफ़्लिस की कुछ नज़र नहीं रहती है आन पर।
देता है अपनी जान वह एक-एक नान पर॥
हर आन टूट पड़ता है रोटी के ख़्वान(कपड़ा जिस पर खाना खाते हैं) पर।
जिस तरह कुत्ते लड़ते हैं एक उस्तुख़्वान (हड्डी) पर॥
वैसा ही मुफ़्लिसों को लड़ाती है मुफ़्लिसी॥
जो खुशामद करे खल्क उससे सदा राजी है,
सच तो यह है कि खुशामद से खुदा राजी है।
अपना मतलब हो तो मतलब की खुशामद कीजिए,
और न हो काम तो उस ढब की खुशामद कीजिए॥
दुनियां में बादशाह है सो है वह भी आदमी।
और मुफ़्लिसो गदा है सो है वह भी आदमी॥
जरदार बेनवा है, सो है वह भी आदमी।
नैंमत जो खा रहा है, सो है वह भी आदमी॥
टुकड़े चबा रहा है, सो है वह भी आदमी॥
मस्जिद भी आदमी ने बनाई है यां मियां।
बनते हैं आदमी ही इमाम और खु़तबाख़्वां (धर्मोपदेश)॥
पढ़ते हैं आदमी ही कु़रान और नमाज़ यां।
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियां॥
जो उनको ताड़ता है सो है वह भी आदमी॥
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