हरिशंकर परसाई जी की किताब “ प्रेमचन्द के फटे जूते ” से कुछ अंश ( पार्ट-1 )

हरिशंकर परसाई जी का व्यक्तित्व इतने बड़ा है की उनका सम्पूर्ण परिचय यहाँ दे पाना थोड़ा मुश्किल है तो संछेप बताए देते हैं।

परसाई जी ने अपने जीवन में थोड़ा सा समय मास्टरी में दिया उसके बाद उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लेखन को दे दिया। आज भी व्यंग लिखने वाला हर लेखक उनसे ही प्रेरणा लेकर शुरू करता है और अपना जीवन बस उनके व्यंग लेखन के आसपास पहुंचने में लगा देता है।

उनको हिंदी व्यंग लेखन का भगवान कहा जाये तो गलत नहीं होगा (ये निजी मत है)। उनके एक संग्रह ‘ विकलांग श्रद्धा का दौर ‘ को सन 1982 में साहित्य अकादमी अवार्ड मिला था, इसलिए हर इंसान को जीवन में एक बार हरिशंकर परसाई जरूर पढ़ने चाहिए ये बात और तर्क संगत हो जाएगी जब आप आगे पढ़ेंगे तब।

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तो आइये आपको हरिशंकर परसाई जी के व्यंग संसार में लेके चलते हैं:-

शुरू करने से पहले बस इतना कहेंगे की व्यंग समझने की चीज होती उसकी व्याख्या कर के सब बिगड़ जाता है ऐसा मेरा निजी मानना है, हाँ बस थोड़ा सा इशारा दिया जा सकता है जिसकी पूरी कोशिश हम करेंगे आगे। 

अध्याय :- श्रवण कुमार के कंधे 

हम सब गलत किताबों की पैदावार हैं। ये सवालों को मारने की किताबें थीं। स्कूल प्रार्थना से शुरू होता था-'शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयाल भगवन्! क्यों शरण में आये हैं, किसके डर से आये हैं-कुछ नहीं मालूम। शरण में आने की ट्रेनिंग अक्षर-ज्ञान से पहले हो जाती थी हमने गलत किताबें पढ़ीं और आँखों को उनमें जड़ दिया। हमारी किताबों में पिता-स्वरूप लोग सवाल और शंका से ऊपर होते थे। शिष्य पक्षपाती गुरु को अँगूठा काटकर दे देता था और दोनों 'धन्य' कहलाते थे।
जीवन से कट जाने के कारण एक पीढ़ी दृष्टिहीन हो जाती है, तब वह आगामी पीढ़ी के ऊपर लद जाती है।आंखवाले की जवानी अन्धों को ढोने में गुजर जाती है।वह अन्धों के बताये रास्ते पर चलता है। उसका निर्णय और निर्वाचन का अधिकार चला जाता है। कितनी कावड़े हैं-राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में । अन्धे बैठे हैं और आँखवाले उन्हें ढो रहे हैं। अन्धे में अजब काँइयाँपन आ जाता है। वह खरे और खोटे सिक्के को पहचान लेता है। पैसे सही गिन लेता है। उसमें टटोलने की क्षमता आ जाती है। वह पद टटोल लेता है, पुरस्कार टटोल लेता है, सम्मान के रास्ते टटोल लेता है। बैंक का चेक टटोल लेता है। आँखवाले जिन्हें नहीं देख पाते, उन्हें वह टटोल लेता है। नये अन्धों के तीर्थ भी नये हैं। वे काशी, हरिद्वार, पुरी नहीं जाते। इस कावड़ वाले अंधे से पूछो-कहाँ ले चलें? वह कहेगा-तीर्थ। कौन-सा तीर्थ? जवाब देगा-कैबिनेट! मन्त्रिमण्डल! उस कांवड़ वाले से पूछो, तो वह भी तीर्थ जाने को प्रस्तुत है। कौन-सा तीर्थ चलेंगे आप? जबाब मिलेगा-अकादमी विश्वविद्यालय!

( इशारा  :- इन अंधों में आप हर किसी को गिन सकते हैं आपके परिवार के बड़े बुजुर्ग उनके संस्कार(रूढ़िवादी) और रीतियां , सरकारी तंत्र शुरू से जो अब तक हम पर लदा है बाकि तीर्थ तो आप समझ ही गए होंगे और कंधे हम लोग नयी पीढ़ी हैं जो कांवड़ ढो रहे हैं )

अध्याय :- लिटरेचर ने मारा तुम्हें 

लक्ष्मी समुद्र-मंथन के बाद समुद्र से निकली थी। समुद्र-मन्थन अकेले देवताओं ने नहीं किया। उन्होंने दानवों का सहयोग लिया। देवता अकेले समुद्र-मंथन करके लक्ष्मी को निकाल लेते, तो में उनकी जय बोलता।
"दानवों के सहयोग के बिना वे लक्ष्मी प्राप्त ही नहीं कर सके। तो अपनी अर्थव्यवस्था का जो समुद्र है उसके मंथन के लिए में दानवों से समझौता करूं, तब लक्ष्मी बाहर निकलेगी। फिर भी क्या ठिकाना कि वह मुझे मिल ही जाएगी। मामूली देवता तो असंख्य थे, पर लक्ष्मी उन्हें कहाँ मिली? वह सीधे विष्णु के पास गयी और गले लग गयी। दुसरे देवताओं ने भी कोई प्रोटेस्ट नहीं किया। करते भी कैसे? विष्णु बहुत बड़े थे-शक्ति में, धन में, रूप में और चातुर्य में। स्त्री बनकर जिसने अपने दोस्त शंकर को ठग लिया, उसकी चतुराई की कोई कमी नहीं थी। लक्ष्मी सीधी 'मोनोपली में जाकर मिल गयी। मैं अगर दानवों से समझौता करके अर्थव्यवस्था के समुद्र का मंथन करूँ और कहीं लक्ष्मी फिर 'मोनोपोली' के पास चली गयी तो ? साहित्य में भी तो 'मोनोपली' है। मोनोपली छोटे को पनपने नहीं देती। एक गरीब मुनि नारद को शादी करने के लिए सुन्दर चेहरे की जरूरत पड़ी थी, सो विष्णु ने उसे बन्दर का चेहरा दे दिया। फिर खुद जाकर स्वयंवर में बैठ गये और जिस लड़की पर उस बेचारे का जी आ गया था, उससे अपने गले में वरमाला डलवा ली। कहते हैं-नारद, वह तुम्हारा मोह था। और हुजूर आपका?

मुझे भी सलाहें मिलती हैं-अहा, कलाकार तो त्यागी होता है। वह धन के लोभ में नहीं पड़ता।

मैं पूछता हूँ और हुजूर आप? आप पड़ सकते हैं? धन का लोभ बरा है, तो आप भी उसमें क्यों पड़ते हैं ?

( इशारा :- वैसे तो पूरा प्रसंग खदु में ही पूरा इशारा है फिर भी बताये देते हैं ये प्रकाशन व्यवस्था और परसाई जी निजी आर्थिक स्थति पर व्यंग है, बस ये है उन्होंने सबको ही शामिल किया है इसमें चाहे फिर वो भगवान ही हों )

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अध्याय:- निंदा रास 

"ट्रेड यूनियन के इस जमाने में निन्दकों के संघ बन गये हैं। संघ के सदस्य जहाँ-तहाँ से खबरें लाते हैं और अपने संघ के प्रधान को सौंपते हैं। यह कच्चा माल हुआ। अब प्रधान उनका पक्का माल बनाएगा और सब सदस्यों को 'बहुजन हिताय' मुफ्त बाँटने के लिए दे देगा। उत्पादन की इस प्रक्रिया को यों समझा सकते हैं-एक सदस्य ने कहा कि विमला और नरेन्द्र ने चुपचाप शादी कर ली। यह कच्चा माल हुआ। अब पक्का माल जो बनेगा, वह यह होगा-विमला को पाँच-छः माह का गर्भ था, इसलिए जल्दी से घबड़ाकर ब्याह कर लिया। यह फुरसत का काम है, इसलिए जिनके पास कुछ और करने को नहीं होता, वे इसे बड़ी खूबी से करते हैं। एक दिन हमसे एक ऐसे संघ के अध्यक्ष ने कहा, “यार, आजकल लोग तुम्हारे बारे में बहुत बुरा-बुरा कहते हैं।" हमने कहा, "आपके बारे में मुझसे कोई भी बुरा नहीं कहता। लोग जानते हैं कि आपके कानों के घूरे में इस तरह का कचरा मजे में डाला जा सकता है।"

( इसमें कोई इशारा देने की जरूरत नहीं है सीधा समझ ही आगया होगा )

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हममें जो करने की क्षमता नहीं है, वह यदि कोई करता है तो हमारे पिलपिले अहं को धक्का लगता है, हममें हीनता आती है और ग्लानि होती है। तब हम उसकी निन्दा करके उससे अपने को अच्छा समझकर तुष्ट होते हैं। सूरदास ने इसलिए इसे 'निन्दा सबद रसाल' कहा है।

( सबके साथ हुआ होगा क्या ही कहें इसमें )


तो ये थे हरिशंकर परसाई जी की किताब – प्रेमचंद के फटे जूते से कुछ अंश। अगर आपको पसंद आए तो आप नीचे दिए लिंक से किताब खरीद कर पढ़ सकते हैं। बाकी पढ़ते रहिए। 

प्रेमचंद के फटे जूते – हरिशंकर परसाई 

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