विनोद कुमार शुक्ल के बारे में गीत चतुर्वेदी जी ने कहा था – कि वो हवा में तैरने वाले कवि हैं। Deewar Me Ek Khidki Rehti Thi is the perfect example.
और भाईसाहब ये उपन्यास – ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी‘ (Deewar Me Ek Khidki Rehti Thi) पढ़ने के बाद मैं कतई नकार नहीं सकता। जिन्होंने विनोद कुमार शुक्ल की केवल कविताएँ पढ़ी हैं (जैसे कि मैं था), उन्हे ये तो समझ आ जाता है कि विनोद कुमार शुक्ल की imagination कहाँ तक है लेकिन जब ऐसे लोग उनका उपन्यास उठाते हैं – तब तो भाईसाहब ऐसे imagination और reality के बीच की दीवार हो जाती है ध्वस्त।
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कहानी एक छोटे से कस्बे के गणित के अध्यापक रघुवर प्रसाद और उनकी पत्नी सोनसी की है। उनका जीवन बहुत अलग है। रघुवर प्रसाद को लेने एक हाथी आता है (रोज), उनके एक कमरे के घर में एक खिड़की है जिसके भीतर एक अलग ही दुनिया है – वहाँ बहुत तालाब हैं, नदियां हैं जिनका पानी बिल्कुल साफ है, एक बूढ़ी अम्मा हैं जो जब देखो कुछ ना कुछ बुहारती रहती हैं और रघुवर प्रसाद और उनकी पत्नी को चाय पिलाती हैं।
वहाँ नीलकंठ हैं, तितली हैं, उड़ने वाली रंगोली हैं, और बहुत कुछ है जो सिर्फ सपनों में होता है। और इस खिड़की में और कोई घुस नहीं सकता सिवाये रघुवर प्रसाद के घरवालों के।
सबसे बड़ी बात कहानी में कोई बड़ी घटना नहीं है, कोई हीरो या विलेन नहीं है। कोई दुख या दर्द नहीं है। कोई ऐसी घटना नहीं है जो असाधारण हो। सब इतना साधारण और सरल है कि वो सपने सा लगता है – एक अद्भुत सपना।
और विनोद कुमार शुक्ल की विशेषता ये है कि वो कहानी में – क्या है से ज्यादा वो बताते हैं – ‘क्या नहीं है’। और ये अपने में एक अलग ही संसार बना देता है।
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पूरे उपन्यास में भारत के मध्यवर्गीय जीवन के ऐसे साधारण से हिस्सों का जिक्र है जो पढ़कर लगता है कि यार सोच नहीं था इन चीजों को एक उपन्यास में डाला जा सकता है और वहाँ ये सटीक बैठेगा। कुछ बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में अपना घर छोड़कर आने के कारण भूल ही गए। बहुत से ऐसे शब्द मिले जिनमे बचपन की महक शामिल है। उदाहरण के लिए –
- कुबेरी-बेरिया
- मेहरापा
- घुइयाँ के पत्ते
- कठुवा की थाली
- बिहनिया
- कुबेरी बेरा
- सुबेरा
- मकोई
- पगुराना
भारत के मध्यवर्ग या कह लो असली जीवन के सबसे पड़ोस में अगर कोई किताब पढ़ी है तो वो ये है। और बड़ी बात ये – कि मध्यवर्ग की जो इमेज हमारे मन मे है कि वो परेशान है, पिसा जा रहा है, ऐसा कुछ नहीं है इसमें। एक बहुत साधारण सी कहानी कि कैसे वो अपना रोजमर्रा का जीवन जी रहे हैं।
कहानी की हर लाइन अपने में कविता। और हर लाइन आपको आगे पढ़ने के लिए ललायित करेगी।
और पूरी कहानी में एक hidden humour है जो आपको बहुत तेज़ हँसाएगा नहीं – गुदगुदी करेगा और उसका अपना सुख है।
अच्छा हाँ- कहानी में conversations बहूत अलग तरीके की हैं। रघुवर प्रसाद जब अपनी पत्नी से बात करते हैं तो बहुत अलग होती है जिसमे कहा कुछ और जाता है और सुना कुछ और जाता है। जब वो बाहर अपने साथ काम करने वाले लोगों से बात करते हैं तो वो अलग ही है – जिसमे हर बात पहले वाली से भिन्न है लेकिन फिर भी जुड़ी हुई किसी एक subtext से। रघुवर प्रसाद के अपने पिता से बातचीत बहुत साधारण है और हमारे आपके जीवन के सबसे निकट।
ये किताब दीवार में एक खिड़की रहती थी – हर भारतीय और बाहर वाले को एक बार तो पढ़नी ही चाहिए। और जो literature में interest रखते हैं उनके लिए तो must है। और जो विनोद कुमार शुक्ल और या फिर मानव कौल के fans हैं वो तो जरूर, जरूर, और जरूर ही पढ़ें। मानव कौल के लेखन की जड़ों की एक शाखा यहाँ से निकली हैं।
किताब पढ़ने के लिए – यहाँ जाएँ।
किताब के कुछ अंश दे रहा हूँ —
"साइकिल हाथी से आगे निकल जाएगी।"
"यदि हाथी पैदल चले तो!"
"हाथी पैदल चले क्या मतलब।"
"यदि ना चले तो घोड़े पर चलेगा?"
"नहीं सर! मैं कह रहा था, हाथी दौड़ेगा तो साइकिल आगे न निकाल पाए।"
"हाँ, आखिर हाथी दौड़ेगा तो पैदल ही। भैंस को भागते हुए देखे हो। तेज दौड़ती है।"
"नहीं सर! भैंस उतनी तेज नहीं दौड़ती जितनी तेज दौड़ते हुए दिखती है। भारी - भरकम होने के कारण उसका दौड़ना तेज दौड़ना लगता है।"
"हाथी आगे-आगे निकलता जाता था और पीछे हाथी की खाली जगह छूटती जाती थी।"
"पत्नी खाना बनाते-बनाते पति को देख लेती थी। हर बार देखने में उसे छूटा हुआ नया दिखता था। क्या देख लिया है यह पता नहीं चलता था। क्या देखना है यह भी नहीं मालूम था। देखने में इतना मालूम होता होगा कि यह नहीं देखा था।"
"आगे कहीं दोपहर घोड़े के आने का रास्ता खड़े-खड़े देख रही होगी। घोड़ा जैसे ही उसके पास आएगा, दोपहर होकर उसके साथ चलने लगेगी।"
"दृष्टि के जल से सूर्य बूझकर चंद्रमा हो गया था। और शाम हो गई थी। फिर रात हो गई। वे उठे तो ऐसे उठे जैसे दूसरे दिन की सुबह थी।"
"खिड़की से आकाश दिखता था, इसलिए खिड़की से झाँकते हुए बच्चे आकाश से झाँकते हुए लगते थे।"
"रघुवर प्रसाद ने जैसे सोनसी के दौड़ने को ही पकड़ा हुआ था। पकड़ा हुआ दौड़ना छूट कर दौड़ गया था।"
"देख लेने से वस्तुओं को पा जाने का सुख मिल जाता तो कितना अच्छा होता। मिठाई को देखते ही खाने का सुख। ऐसा होता तो दिखाने के लिए थोड़ी चीजें होतीं और सबकी जरूरत पूरी हो जाती। अनजानी खुशी सोच समझकर हुए दुःख को भी दूर कर देती थी।"
"नीम के पेड़ के नीचे का अधिक अंधेरा हाथी के अंधेरे के आकार का था। रात के बीतने से जाता हुआ यह अंधेरा, शायद हाथी के आकार में छूट गया था। ज्यों ज्यों सुबह होगी हाथी के आकार का अंधेरा हाथी के आकार की सुबह होकर बाकी सुबह में घुलमिल जाएगी।
"क्या हम यहाँ से मृत्यु को देख सकते हैं?"
"बचे जीवन को देख लेने के बाद फुरसत मिलेगी तब। जीवित आँखों से मृत्यु नहीं जीवन दिखता है।"
"सात दिनों के सप्ताह में एकाध दिन कौनसा दिन हो जाता था। यह कौन सा दिन कभी थोड़ा कभी पूरा बीत जाता था। बिना दिन का पता चले कि मंगलवार है या ब्रहस्पति काम हो जाता था। यद्यपि यह कौन सा दिन किसी भी दिन जैसा था, पर आज का दिन था। इस कौन से दिन की आज की सुबह थी। कौन से दिन के आज के पेड़ थे। पर आज के पेड़ वही पेड़ थे। सब कुछ वही था और दिन मालूम नहीं था।"
"कितने दिन हो गए को कितने दिन हो गए में ही रहने देना चाहिए। दिन को गिनती में नहीं समझना चाहिए। किसी को भी नहीं। गिनती चारदीवारी की तरह है जिसमे सब मिट जाता है। अंतहीन जैसा का भी गिनती में अंत हो जाता है। जो गिन नहीं गया उसकी विस्तार अनंत में रहता था, कि वह कभी भी कहीं भी है। चाहे कितना छोटा या कम क्यूँ ना हो।"
"वर्तमान का सुख इतना था कि भविष्य आगे उपेक्षित-सा रस्ते में पड़ा रहता, जब तक वहाँ पहुँचो तो लगता खुद बेचारा रस्ते से हटकर और आगे चला गया। "
बिखेरने की आज़ादी और समेटने का सुख – लिखने की इससे बेहतर परिभाषा की खोज में निकला एक व्यक्ति। अभिनय से थककर शब्दों के बीच सोने के लिए अलसाया आदमी।
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