नौकर की कमीज विनोद कुमार शुक्ल का बहुत ही प्रसिद्ध उपन्यास है जिस पर मणि कौल फिल्म भी बना चुके हैं। बहुत ही सुंदर, व्यंगयात्मक और fascinating टेक है मिडल और लोअर क्लास के लोगों के ऊपर।
नौकर की कमीज में कहानी एक ऐसे इंसान की है जो किसी दफ्तर में बाबू है और उसके साथ के बाबू हैं वो बड़े साहब के लिए काम करते हैं। कैसे इन सबका गुजारा होता है बढ़ते बाज़ारबाद और नौकरीपेशा समाज में – उसकी कहानी है।
विनोद कुमार शुक्ल की तारीफ तो पहले भी बहुत बार की है तो इस बार और करके redundancy नहीं लूँगा। बस इतना कहूँगा – पढ़के बहुत हँसी आएगी और मजा आएगा। इसके कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ। अच्छी लगे तो पढ़ लीजिएगा।
विनोद कुमार शुक्ल- कविता से लंबी कविता | Review | Top 10 बिम्ब
विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास – नौकर की कमीज़ से कुछ अंश
संघर्ष का दायरा बहुत छोटा था। प्रहार दूर-दूर से और धीरे-धीरे होते थे इसलिए चोट बहुत जोर की नहीं लगती थी। शोषण इतने मामूली तरीके से असर डालता था कि विद्रोह करने की किसी की इच्छा ही नहीं होती थी। या विद्रोह भी बहुत मामूली किस्म का होता। यदि सब्जी बहुत महंगी मिलती थी तो इसका कारण उन सब्जी बेचनेवालों को समझता जो टोकरी में सब्जी बेचने मुहल्ले-मुहल्ले घूमते थे। उनसे सब्जी तौलाते समय डपटकर बोलता - तौल ठीक होना चाहिए। सड़ी आलू मत डाल देना। तुम लोग ठगते हो, डंडी मारते हो, लूटते हो। यही मेरा विद्रोह था।
यदि एकबारगी कोई गर्दन काटने के लिए आए तो जान बचाने के लिए जी-जान से लड़ाई होती। इसलिए एकदम से गर्दन काटने कोई नहीं आता। पीढ़ियों से गर्दन धीरे-धीरे कटती है। इसलिए खास तकलीफ नहीं होती और गरीबी पैदाईशी रहती है। गर्दन को हिलगाए हुए सब लोग अपना काम जारी रखते हैं - यानि गर्दन कटवाने का काम।
किसी दुख के परिणाम से कोई जहर नहीं खा सकता। यह तो षड्यन्त्र होता है। आदमी को बुरी तरह हराने के बाद जहर का विकल्प सुझाया जाता है। आदमी को भूखा रखकर जहर खाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। भूखा रखना किसी को हराना नहीं था। यदि ऐसा होता तो हराने का काम आसान हो जाता।
मुझे चंद्रमा आकाश में गोल कटी हुई खिड़की की तरह लगता था जिससे आकाश की आड़ में छुपी हुई दुनिया का उजाला आता था। सूर्य का भी यही हाल था। फर्क सिर्फ दिन और रात का था।
अपनी सुरक्षा के लिए घर की सिटकनी लगा ली। दुनिया की सुरक्षा के लिए किस जगह सिटकनी लगेगी? घड़ी देखना समय देखना नहीं होता.
अच्छी लगी हो तो नीचे लिंक है – यहाँ से पढ़ सकते हैं।
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बिखेरने की आज़ादी और समेटने का सुख – लिखने की इससे बेहतर परिभाषा की खोज में निकला एक व्यक्ति। अभिनय से थककर शब्दों के बीच सोने के लिए अलसाया आदमी।
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