चारों तरफ गूँजता नफ़रत का शोर, उस शोर के नशे में डूब चुके लोग और इन सब के बीच मौन बैठी एक बूढ़ी जर्जर होती देह जो सूनी आँखों से यह सब देख रही है। वो भोंसले है, परंतु भोंसले कौन है? मेरे लिए तो भोंसले जवान होती नफ़रत और हिंसा के बीच बूढ़ी होती हमारी मनुष्यता है, हमारी आत्मा है। जिससे हम आँखें नहीं मिला पाते हैं, जिसकी आँखों में देख मानो हम खुद की मर चुकी आत्मा को आईने में देख लेते हैं।
पहले ही दृश्य में भोंसले गणेश की खण्डित मूर्ती सा खण्डित हुआ बैठा है। उसके झुके हुए कंधे, थक चुकी आँखें और उतरती हुई uniform, सब उसके खंडित मन का ही एक ठोस रूप है। भोंसले का साथ देने को बस उसका एक कमरा है जिसकी दीवारें भी अब भोंसले की देह सी बूढ़ी होती जा रही हैं।

बाहर नफ़रत का एक जाल बिछा है, उस जाल में फंसा एक नौजवान है “विलास”। वो रक्षा करने में लगा है अपने लोगों की बाहर के आये लोगों से। वो खुद ऐसा क्यूँ कर रहा है उसे नहीं मालूम, क्यूँ जो बाहर से आया है वो बुरा है उसने सब रट लिया है, वो तो बस किसी नफ़रत फैलाने वाले बड़े आका को खुश करना चाहता है।
इन सब के बीच जी रहे हैं दो भाई बहन जो बाहर से आए हैं। वो भोंसले को नहीं जानते, ना भोंसले उनको जनता है। पर वो नफ़रत को भी नहीं जानना चाहते, वो तो बस जीना चाहते हैं। शायद इसीलिए वर्षों बाद भोंसले का मन मुस्कुराया है इन दोनों में अपना एक परिवार ढूँढ़कर।

इन सब के बीच ईश्वर कहाँ है? ईश्वर चारों ओर मौजूद है, ईश्वर सिर्फ़ एक मूर्ती है जिसका आना और जाना सब एक बराबर है। उसके आने की खुशी में ही तो यह नफ़रत बाँटी जा रही है परंतु ईश्वर तो इसे भी देख मूक है। और भोंसले?
देवाशीष मखीजा सर ने अपने खूबसूरत निर्देशन से, मनोज बाजपाई सर के साथ बाकी सभी कलाकारों ने अपने अभिनय से और इस आत्मा कुरेद देने वाली कहानी ने यह सब लिखने पर मजबूर कर दिया।
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“मुझे शब्द बहुत पसंद हैं।” –
Bio माँगा तो कहा कि बस इतना ही लिख दो। छोटा, सटीक और सरल। Instagram bio में खुद को किताबी कीड़ा बताती हैं और वहाँ पर किताबों के बारे मे लिखती हैं। इनको आप Medium पर भी पढ़ सकते हैं।
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