निर्मल वर्मा को जितना पढ़ रहा हूँ उतना उनसे प्रेम होता जा रहा है। उनका हर एक पात्र, हर एक शब्द इतने चोरी छिपे आकर दिल में जगह बना लेता है कि पता ही नहीं चलता। बिना आहट के, दबे कदमों से दुबका हुआ सा मन के एक कोने में बैठ जाता है, जिससे आस पास के जीवन पर कोई हस्तक्षेप नहीं होता। और एक दिन बहुत हल्के से फुसफुसाता है कि देखो मैं कब से यहाँ हूँ।
अभी अभी निर्मल वर्मा की किताब प्रतिनिधि कहानियाँ पढ़ी है। और जो महसूस हो रहा है वो बहुत असीम है। उसे हाथों मे नहीं पकड़ सकता। ठीक उनकी कहानी की तरह।
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कभी कभी आदमी खुद अपने को बुलाने लगता है, बाहर से भीतर – और भीतर कुछ भी नहीं होता।
निर्मल वर्मा
हर कहानी अपने में इतनी निजता के साथ जीवन जीती है कि उसे पढ़ते हुए लगता है कि हम ये जीवन खिड़की से देख रहे हैं और दरवाजे बंद हैं। खिड़की से देखने पर हस्तक्षेप की गुंजाईश ना के बराबर है और आप सामने भी नहीं आते। हर एक कहानी किसी ना किसी खिड़की के पीछे का जीवन है जिसे जैसे चोरी से देख लिया है। उसे देखना नहीं था, वो निजी था।
निर्मल वर्मा के पात्र जब खुद से बात करते हैं तो लगता है जैसे मेरे मन की बरसों पुरानी गाँठे हैं जो उनके शब्दों से खुल रही हैं। और ये बहुत सुख देता है। इतना सुंदर है कि शब्द छोटे हैं उसके सामने।
एक तो हर पात्र अपने अतीत से एक उदासी या कह लो जीवन की बहुत ही बारीक सच्चाई से जुड़ा हुआ है। उनकी कहानियों मे कुछ भी झूठ नहीं लगता। और धूप। हर कहानी एक ऐसा मौसम लाती है जिसमें धूप बहुत उजली है और बहुत साफ है। मार्च के दिनों की या फिर अक्टूबर की शामें।
सिर्फ ईश्वर ही अपनी दया में अदृश्य होता है।
निर्मल वर्मा
हर कहानी अपने में एक शाम लिए हुए है। मैंने आज तक किसी लेखक की कहानी में धूप और शाम का इतना अनोखा विवरण नहीं पढ़ा। पढ़ते ही दो हिस्सों में बँट जाता हूँ – कि काश यहाँ पर मैं होता और फिर कि नहीं… मैं होता तो ये कहानी यूँ ना होती। ये कहानी सिर्फ इस पात्र की है।
और जब सूर्य ग्रहण हो रहा था – तब जो धूप थी – छाया और कालापन लिए हुए धूप और एक शांति। निरीह शांति। वो सब निर्मल वर्मा की कहानियों में मिलता है।
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तो कुछ अगर बहुत सच्चा और बहुत निजी पढ़ना है तो निर्मल वर्मा की प्रतिनिधि कहानियाँ पढिए।
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निर्मल वर्मा की प्रतिनिधि कहानियाँ किताब से कुछ अंश
बरसों बाद भी घर, किताबें, कमरे वैसे ही रहते हैं, जैसा तुम छोड़ गए थे; लेकिन लोग? वे उसी दिन से मरने लगते हैं, जिस दिन से अलग हो जाते हैं... मरते नहीं, एक दूसरी ज़िंदगी जीने लगते हैं, जो धीरे- धीरे उस ज़िंदगी का गला घोंट देती है, जो तुमने साथ गुजारी थी...
हमारा बड़प्पन सब कोई देखते हैं, हमारी शर्म केवल हम देख पाते हैं।
मैं कुछ कहना चाहता हूँ, फिर भी चुप रह जाता हूँ, क्यूंकि मुझे मालूम है कि मैं जो कुछ कहूँगा, वह बहुत नीरस और निरर्थक है। बहुत-से शब्द हैं और मैं अक्सर बोलते हुए गलत शब्दों को चुन लेता हूँ और फिर मुझे बुरा लगता है, और फिर जिद बंध जाती है, और मैं विषय से भटक जाता हूँ, लेकिन तब चुप रहने का अवसर चूक जाता है, और अंत मे बोलकर चुप हो जाता हूँ, तो मुझे लगता है कि मुझे शुरू में ही चुप रहना था।
इस लेंन पर धूप और छाया आधी-आधी बँट गई है। मैं आधी छाया पर चलता हूँ, मेरी छाया आधी धूप पर गिरती है।
वह धीमे से हँसी - जैसे मैं वहाँ न हूँ, जैसे कोई अकेले में हँसता है, जहाँ एक स्मृति पचास तहें खोलती है।
वे हँसने लगीं - एक उदास-सी हँसी जो एक खाली जगह से उठकर दूसरी खाली जगह पर खत्म हो जाती है - और बीच की जगह को भी खाली छोड़ देती है।
मैं उन्हे देखता रहा - मेरे भीतर जो कुछ था, वह ठहर गया - मैं उसके भीतर था, उस ठहराव के, और वहाँ से दुनिया बिल्कुल बाहर दिखाई देती थी।
बिखेरने की आज़ादी और समेटने का सुख – लिखने की इससे बेहतर परिभाषा की खोज में निकला एक व्यक्ति। अभिनय से थककर शब्दों के बीच सोने के लिए अलसाया आदमी।
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