Treplief- जीवित पात्र! नाटक में जीवन जैसा है वैसा नहीं बल्कि ‘जैसा होना चाहिए’ वैसा दिखाना होता है; सपनों वाला जीवन।
– anton chekhov के नाटक The Seagull के एक पात्र का कथन
इतिहास के हिसाब ये नाटक anton chekhov की पहली सफलता थी। मैं इस line पर बात करना चाहता हूँ। क्या संभावना होती है नाटक की, उसके पात्रों की, उसमें दिखाए जा रहे जीवन की? मैं इस बात से कहीं कहीं पर सहमत भी होता हूँ, लेकिन फिर असहमति भी आकर सामने बैठ जाती है।
नाटक कला है, कला का उद्देश्य होता है समाज का साफ साफ रूप दिखाना। साथ में जैसा समाज हो सकता है, खासकर बेहतर प्रारूप उसकी संभावना और उम्मीद लोगों को देना। तो नाटक दोनों काम कर सकता है क्या? जीवन जैसा है वैसा दिखाना भी जरूरी है! और जो हो सकता है वो भी! पर उसके दायरे क्या हैं?
कितनी असलियत नाटक में ठीक है? इसका कोई पैमाना है? कितना सपने जैसा जीवन हम दिखा सकते हैं इसकी कोई सीमा है?
आइए इस पर संवाद करते हैं।
बिखेरने की आज़ादी और समेटने का सुख – लिखने की इससे बेहतर परिभाषा की खोज में निकला एक व्यक्ति। अभिनय से थककर शब्दों के बीच सोने के लिए अलसाया आदमी।
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