इससे पहले हम दो पोस्ट में कुँवर नारायण जी की कुछ चुनिंदा पंक्तियाँ दे चुके हैं। जो उनकी किताब प्रतिनिधि कविताएँ से ली हैं। इसी श्रंखला में एक कड़ी और रही।
Kunwar Narayan – कुँवर नारायण की कुछ और पंक्तियाँ
Kunwar Narain | कुँवर नारायण | Top 10 सुंदर पंक्तियाँ
कुँवर नारायण की Top 10 पंक्तियाँ
किसी ने कहा - "लड़ो,
ज़िंदगी हक़ की लड़ाई है।"
हथियार उठाया तो देखा
मेरे खिलाफ पहला आदमी
मेरा भाई है।
अपने समय की इससे सच्ची तस्वीर कहीं और शायद ना मिले! पढ़ने के बाद सोचने पर मजबूर कर ही देती हैं पंक्तियाँ।
फिर कभी कागज़ हुआ
तो चेष्टा करूंगा
ज़िंदगी किसी ऐसे पत्र का इंतज़ार हो
जिसे कोई प्यार से लिखे,
संभालकर एक लिफ़ाफ़े में रखे,
और अपने होंठों से चिपकाकर
देर तक सोचे
कि उसे भेजे या न भेजे?
कभी सोचा है कागज़ होना! और कागज होकर इस तरह जीना? नहीं सोचा तो इन पंक्तियों को पढ़कर सोचने को मन करता है कि ज़िंदगी ऐसी भी हो सकती है।
और एक दिन
इसी तरह बहते हुए
कभी जंगल, कभी गाँव, कभी नगर से होते हुए
सागर में समा जाने को
ढिठाई से कहेंगे,
कि नदी बूढ़ी नहीं होती।
नदी बूढ़ी नहीं होती – सुंदर पंक्ति है और उतना ही सुंदर विचार – है ना? कुछ स्तर देता है कि जीवन ऐसे भी देखा जा सकता है।
धूप में सबसे कम दिखती है
चिराग की लौ।
सत्य है और सुंदर है। बस।
और वह प्रेमिका
जिसका मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका खून कर दूँ!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र
कभी माँ
कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूंट पीकर रह जाता।
ये पूरी कविता – लाजवाब। एक होता है सुंदर, एक होता है अति सुंदर और एक होता है उससे परे। तो ये कविता उससे परे। बहुत छोटा अंश है उस बड़ी सी कविता का और अपने मे पूर्ण रूप से सक्षम। क्या कभी ऐसा महसूस किया है?
सुई की नोंक बराबर धरती पर लिखा
भगवद्गीता का पाठ
इतना विराट
कि अपठनीय
एक तो पहले भगवद्गीता जल्दी समझ नहीं आती – इतनी विराट है लेकिन उससे विराट है धरती या कह लो जीवन – एक स्तर से देखने से। ये कमी धरती की है या फिर भगवद्गीता कि या फिर हमारी – ये सवाल खुद से पूछते हैं ?
सोचते सोचते सो गया था एक गहरी नींद
जैसे अब सुबह ना होगी
कि एक आहट से खुल गई आँखें
जैसे वही हो दरवाजे पर
बरसों बाद
जिसे बहुत पहले आना था।
इससे बन रही image जो है वो कुछ अलग ही स्तर का कुछ महसूस करा के जाती है।
बस, हाथ भर की दूरी पर है
वह जिसे पाना है।
ग़लती उसी दूरी को समझने में थी।
क्या हम सब ऐसे नहीं है? दूरियाँ समझ जाते, पहले से भांप लेटे तो शायद दूर कर लेते। पर दूरियाँ हम वैसे नहीं देखते जैसी हैं – बल्कि वैसे देखते हैं जैसे हम हैं!
अभी बाकी हैं कुछ पल
और प्यार का एक भी पल
बहुत होता है।
और यहाँ हम निशब्द हो गए।
जिस रास्ते से गए थे
लौटते वक़्त वही रास्ता
वही रास्ता नहीं होता।
डगर चढ़ते
चढ़ता सूरज
ढलानों पर उतरते
उतरता सूरज
वही सूरज नहीं होता।
पल- प्रतिपल बदलती है ज़िंदगी। घड़ी हर मिनट दिखती है कुछ नया समय।
अब मेरे हाथों को छोड़ दो
गहरे पानी में
वे डूबेंगे नहीं
उनमें समुद्र भर आएगा।
खुद को इस नजर से देखने के लिए कितना कुछ जीना पड़ेगा?
तो ये थी कुँवर नारायण की कुछ और सुंदर पंक्तियाँ। और पढ़ने का मन हो तो किताब मँगा लीजिए। बाकी पढ़ते रहिए। और बताईए फिर कैसी लगीं?
प्रतिनिधि कविताएँ – कुँवर नारायण
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