साथी,
जोरम देखी। शरीर में सिहरन रही बहुत देर तक जब पिक्चर खतम हो गयी। हम चुप थे। सब के सब हॉल में। लोग बाहर जा रहे थे। लेकिन एक चुप्पी थी सबमें। मैं बैठी रही। मेरा दोस्त मेरे उठने का इंतज़ार कर रहा था। हॉल के एम्प्लॉयीज़ भी। पिक्चर खतम हो चुकी थी।
लेकिन दसरू तो अभी भी भाग रहा था। पूरे हॉल में सिर्फ़ उसकी ही तो साँसें गूँज रही थी लगातार। दसरू। अपनी बेटी जोरम के साथ। एक अंनत दौड़ में। जंगल में गुम। उसे देखने की खिड़की लगातार छोटी होती हुई। अंत में बस इतनी कि सिर्फ़ उसकी साँसें हम तक पहुँच पाए सारे नामों के झरोखों से। क्या होता अगर हम जिन लोगों को देख नहीं पाते उनकी साँसें ऐसे ही झरोखों से अपने कानों में सुन पाते? हम शायद थोड़े और बेहतर होते.. शायद।
दसरू नदी पर अपने दोस्त से कहता है वो बंदूक छोड़ कर भागा था। घर नहीं। बंबई में अपनी झुकती पीठ पर सीमेंट लादकर वह दूसरों का घर बनाता था। माचिस की डिब्बी जैसे घर। एक के ऊपर एक। लदे हुए। किसी बोझ की तरह।
अपने घर में उसकी पत्नी झूला झूलती थी और वो साथ में गाना गाते हुए हँसते थे। यहाँ उनकी बेटी झूला झूलती है साड़ी में और गाना कोई नहीं गाता। उसकी पत्नी सिकुड़कर लेटती है और बेटी के झूलने की जगह बढाने के सपने देखती है।
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फ़िर एक दिन एक औरत आती है। बड़ी गहरी रौबदार आँखें। पर खाली। कुछ ढूँढती हुईं। माथे पर टैटू, नाक में बाली। दसरू और उसकी बीवी जैसी। उन्हीं के राज्य से। झारखंड। उसके और दसरू के बीच कुछ पुराना अटका हुआ है। एक रस्सी से बंधे हैं दोनों। उनकी आँखें पहचान गयी हैं एक दूसरे को। और अगले दिन वो औरत अपनी तरफ़ से रस्सी खींच देती है। बहुत जोर से। दसरू गिर जाता है। अब दसरू को उसके पास आना पड़ेगा।
एक पुलिस अफ़सर है। दो रातों से जागा हुआ। अब वह तब तक नहीं सो सकता जब तक वह दसरू को नहीं ढूँढ़ लेता। इस चक्कर में हमेशा अपनी आँखें खुली रखता है। जब बाकी सब बंद कर लेते हैं तब सबसे ज़्यादा। ताकि ठीक से देख सके दसरू को। पूरी फ़िल्म में उसके सिवा दसरू को कोई नहीं ‘देख’ पाता। और इसीलिए हर बार दसरू उसके हाथ से फिसल जाता।
जोरम। दसरू सिर्फ़ इसीलिए भाग पाया और अंत में भी भागता रहा क्यूँकि उसके पास जोरम थी। वह घर जा रहे थे। घर जाने के रास्ते में दसरू जोरम को अपने गाँव के गीत सुनाता। उसका गाँव नदी और पलाश के गीतों से बना हुआ था। लेकिन अब वह वहाँ नहीं थे। अब सब बदल चुका था ― नदी की जगह डैम थे और पलाश की जगह खनिज की खेती होती। लेकिन वह फ़िर भी जोरम को सब बताता क्यूँकि उसके लिए वह अभी भी थे। जैसे वानो थी। पर अब नहीं। अब सिर्फ़ दसरू था। सो उसने उसे अपने ऊपर ओढ़ लिया था। उनके गाँव में सारे मर्द ऐसे ही थे। वह अपने भीतर के स्त्रीत्व को अपनी त्वचा पर ओढ़े रहते थे ― उनकी नाक में तीन बालियाँ होती, बालों और कानों में भी। एक कोमलता, ईमानदारी और एक चुप। जो दसरू में थे। वह इतना धीमे बोलता जैसे कोई फूल साँस ले रहा हो।
[ मनोज सर को ऐसे देख बार बार अलीगढ़ के प्रोफ़ेसर सिरस याद आते रहे। वह भी ऐसे ही थे। और भोंसले भी। उन तीनों को गले लगाने का मन हुआ। दसरू मनोज सर की सबसे सुंदर और पसंदीदा परफॉरमेंस थी। ]
दसरू के गाँव की स्त्रियाँ भी ऐसे ही रहती थीं― उनकी नाक में भी बालियाँ होतीं और छाती से चिपके बच्चे लेकिन मुँह में बीड़ी और हाथ में बंदूकें। परंतु उनके भीतर का पुरुषत्व उन्हें खाता रहता लगातार। जैसे उस औरत को। बड़ी गहरी रौबदार आँखों वाली। वह अकेली थी। बहुत। सो उसने रस्सी कसनी शुरू कर दी दसरू के इर्द गिर्द। ताकि उसे मार सके।
मारना ― कौन किसे मार रहा है और कौन मर रहा है? यह सवाल तुम खुद से पूछते हो जैसे जैसे दसरू तुम्हें अपने गाँव के भीतर ले जाता है। और भी बहुत से सवाल जैसे उस हरे पेड़ का उस लाल पेड़ से क्या संबंध रहा होगा? और उनसे उलटे लटके हुए आदिवासियों का एक दूसरे से? और.. और अँधेरे में जब लाइट जाती है तो हँसी मज़ाक़ ‘मज़ा’ कहाँ शुरू होता है और जबरदस्ती में कब बदल जाता है? यह देवाशीष मखीजा तुमसे पूछते हैं। कैमरा के ज़रिए।
कैमरा जो पीयूष पुटी के हाथों में था इतनी खूबसूरती से। यह शायद उन चंद फिल्मों में से होगी जिनमें शुरू से अंत तक सारा कुछ एक ऐसी डोर से बँधा रहता है जो बहुत कसी हुई है, जिसका हर एक दृश्य बहुत सुंदर है और उसे कहीं भी हिलाया नहीं जा सकता। सारे दृश्य अपनी जगह पर एकदम सटीक और ईमानदार। विज़ुअल इंटेग्रिटी। (जो हॉवर्ड रोअर्क अपनी बिल्डिंगों में ढूँढता था।)
देवाशीष मखीजा सर को शुक्रिया इस फ़िल्म को बनाने के लिए। यह मेरी उनकी सबसे पसंदीदा फिल्मों में से एक रहेगी हमेशा। मनोज सर, स्मिता ताम्बे और मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब की आँखें चूमने का मन है।
और अंत में थिएटर में स्क्रीन की दूसरी तरफ़ बैठे हम सब लोगों से एक बात ― जोरम बहुत ही शानदार, पूरी तरह से इतने अच्छे एक्टर्स के साथ बनी एक सुंदर कमर्शियल थ्रिलर फिल्म है जो एक पल भी तुम्हें अपनी सीट पर टिकने नहीं देती साथ ही सोचने पर, आँखें खोलकर दूसरों के (और अपने) जीवन को पहले से थोड़ा और ज़्यादा देखने पर मजबूर करने वाली फ़िल्म है। हम सबको यही तो चाहिए था ना.. अच्छा सिनेमा.. पर क्या हम इसे सिनेमाघरों में देखने जाएँगे?
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“मुझे शब्द बहुत पसंद हैं।” –
Bio माँगा तो कहा कि बस इतना ही लिख दो। छोटा, सटीक और सरल। Instagram bio में खुद को किताबी कीड़ा बताती हैं और वहाँ पर किताबों के बारे मे लिखती हैं। इनको आप Medium पर भी पढ़ सकते हैं।
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