Joram | Devashish Makhija | A Letter | EkChaupal

Joram | Devashish Makhija | A Letter | EkChaupal

जोरम देखी। शरीर में सिहरन रही बहुत देर तक जब पिक्चर खतम हो गयी। हम चुप थे। सब के सब हॉल में। लोग बाहर जा रहे थे। लेकिन एक चुप्पी थी सबमें। मैं बैठी रही। मेरा दोस्त मेरे उठने का इंतज़ार कर रहा था। हॉल के एम्प्लॉयीज़ भी। पिक्चर खतम हो चुकी थी।

लेकिन दसरू तो अभी भी भाग रहा था।

Forgetting by Devashish Makhija | Power of Remembrance | EkChaupal

Forgetting by Devashish Makhija | Power of Remembrance | EkChaupal

बचपन से लेकर बूढ़े होने तक हम कितना कुछ भूल जाते हैं, भूल जाएंगे और कितना कुछ याद रहेगा… इन कहानियों के अंत में पहुँचकर लगा कि मैं बूढ़ा हो चुका हूँ और अपनी हाथ की रेखाओं को टटोलकर देख रहा हूँ कि क्या ये बचा रहेगा मेरे पास या फिर forgetting की सतत प्रक्रिया में कहीं खो जाएगा।

Devashish Makhija’s Cycle | A Letter

Devashish Makhija’s Cycle | A Letter

इस फिल्म के बाद मैं देवाशीष का शुक्रिया नहीं कहूँगा कि उन्होंने ये फ़िल्म बनाई। मैं बस उनके गले लगकर माफ़ी मांगूंगा कि उन्हें ये फिल्म बनाने की ज़रूरत पड़ी। और जिस ढंग से बनाई है, उसके लिए नमन और शुक्रिया दोनों।

Cheepatakadumpa : फटी आँखें और एक खेल | Devashish Makhija

Cheepatakadumpa : फटी आँखें और एक खेल | Devashish Makhija

लगभग तेईस मिनट की एक शॉर्ट फिल्म है Cheepatakadumpa नाम से देवाशीष मखीजा की। ये देवाशीष मखीजा वहीं हैं जिनने भोंसले बनाई है। आओ मीना, सुपा सीना.. का खेल। खेल ही तो है। फ़िर चारों तरफ़ इतनी चौंकी हुई आँखें क्यूँ? यह निगरानी क्यूँ? क्या है खेल में ऐसा? क्या खेल कोई घेरा है?