Manav Kaul’s Chuhal | EkChaupal

Manav Kaul's Chuhal

Chuhal is a play by Manav Kaul. You can read it on his blog here. This post is our reflection on the effects it had on us.

चुहल। चुहल.. एक छोटी सी चुहल। बच्चों के खेल सी मासूम जो तुम्हारे भीतर के सारे सच खोल दे तुम्हारे सामने। क्या होता है दो लोगों के बीच में? हमारा रिश्ता किसी से भी क्यूँ होता है? क्या है जो हमें उनसे बाँधे रखता है? क्या है वो कहा/अनकहा.. क्या घटता है उसमें? क्या किसी से हमारा संबंध सिर्फ़ इसलिए नहीं बन जाता कि उससे हमारा कोई संबंध कभी नहीं बन सकता? यह कैसा घेरा है जिसमें दो बिंदु परिधि पर अपनी अपनी गति से चलते रहते हैं लेकिन कमबख्त कुछ तो है.. शायद यह बीच का खालीपन ही है और कुछ नहीं.. या पता नहीं क्या.. यह किसी अदृश्य डोर सा दोनों को बार बार एक दूसरे से भिड़ा देता है। जैसे कोई चुंबक हों दोनों। किसी को कुछ नहीं पता.. और इस कहानी में यह ठीक है। कुछ भी नहीं पता होना। सरल सरल सरल कहानी(नाटक)! कहानी नहीं है यह.. यह भीतर है कहानी का जो कहानी के कहानी जैसे होने में हमेशा छूट जाता है। गुम हो जाता है खोखले ढाँचे जैसे शब्दों के बीच। एक लड़का लड़की हैं। उनकी पहली मुलाकात है। जैसे सबकी होती है। मच्छर को मारने जैसी फुर्ती से तुम अपने बीच का सत्य कह देते हो कि यह रिश्ता नहीं होगा। कभी नहीं। लेकिन फ़िर हँसते हो, क्यूँकि यह कहते ही भीतर कुछ हल्का हो जाता है। सत्य कह दिया। अब उसे ढोना नहीं पड़ेगा। ढोंग खतम। तुम कहते हो हाँ, इतना पता चला कि तुम्हारे जैसा तुम है इस दुनिया में एक, और मेरे जैसा मैं है इस दुनिया में एक। क्या इस पूरी अनजान दुनिया में इतना भर जानने का सुख नहीं है कि इस नाम का कोई है जो रहता है यहीं इसी धरती पर? जिससे तुम्हारा संबंध नहीं हो सका वाला संबंध है। तुम हँस के कहते हो हम दोनों जैसे दो हैं इस दुनिया में। और सब बदल जाता है। यह क्या है?! यह ‘हम’ शब्द जिसने सब बदल दिया। किस चीज़ का बना है यह?

इतना नंगा साबुत सत्य!जैसे तुम्हारे भीतर से सारे भिखरे गर्म काँच से चमकते टुकड़ों को किसी ने बटोरकर सामने रख दिया हो.. उनकी पूरी संपूर्णता में, उनके पूरे खालीपन में। और अब तुम उस तस्वीर को देख रहे हो। मंच पर उसे कोई जी रहा है तुम्हारे लिए। तुम उसे पन्ने पर पढ़ रहे हो।

मुझे नहीं पता यह कैसे पकड़ा है तुमने.. मेरे पास शब्द भी नहीं हैं इसके लिए.. मैं क्या कहूँ? मुझे पता है कि यह पात्र असल जीवन नहीं है। असल जीवन के पात्र ऐसे नहीं होते। तुम्हारे पात्र पूरे के पूरे सच होते हैं। अपने झूठ में भी सत्य। वो खुद को छलते हुए भी सत्य कह रहे होते हैं। ये कौन सा सत्य है जो वो कहते हैं जैसे उनके भीतर से आया हो? यह असल में हमारा सत्य है.. टुकड़ों टुकड़ों में बिखरा सत्य जिसे कह पाने की हममें हिम्मत नहीं है। ना होगी कभी। इसलिए तुम्हारे यह पात्र उसे कहते हैं पूरा का पूरा एक साथ.. उसके होने की पूरी सादगी और संपूर्णता में। शुक्रिया ऐसे पात्र लिखने के लिए। पात्र नहीं हैं यह, यह हमारा भीतर है – पूरा साबुत जीता जागता – वो भीतर जिससे हम जीवन भर मुँह छुपाते रहते हैं। जिसकी हल्की सी भी झलक पाते ही हम मर जाते हैं.. फालतू बातों में, फ़ोन की स्क्रीन में।

० आरती और सुधीर साथी ना होकर भी दो साथी हैं, वो एक दूसरे के साथ वो हो सकते हैं जो वो हमेशा से होना चाहते थे। जब सुधीर को अपने भीतर का सच जानना होता है तो वो आरती से कहता है कि तुम मैं बन जाओ ताकि मैं अपने भीतर का सच जान सकूँ। क्या साथियों को ऐसा ही नहीं होना चाहिए? कि वो एक दूसरे का सत्य बाहर ला सकें, वो हो सकें एक दूसरे के साथ जो वो हमेशा से होना चाहते थे। जो एक दूसरे को बहतर बनाए।

० तुमसे हमेशा सीखा है कि भीतर के सारे सत्य हमारे बचपन के खेलों की राइम करती भूल भुलैयाओं में आके हमारे सामने खुल जाते हैं। बड़े होने का बहाना उन सत्यों से मुँह छुपाने का, उन बचपन के खेलों से दूर भागने का एक तरीका भर है। जो हमें दुनिया ने रटाया है। चुहल.. एक छोटा सा खेल.. जगहें बदलने का जिसे तो शायद अब बच्चे भी नहीं खेलते। यह दुनिया बहुत सी त्रासदियों से बच जाएगी जिस दिन हम सबने यह खेल एक दूसरे के साथ खेलना शुरू कर दिया। शायद जगह बदलने से हम दूसरे व्यक्ति हो जाएँगे, उसके जूते पहन लेंगे, उसकी बात समझ जाएँगे.. यह एक बच्चे की प्रार्थना है। शुक्रिया यह देने के लिए।

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