केदारनाथ अग्रवाल जी हिन्दी साहित्य के कुछ सबसे सुंदर कृतियों वाले कवियों में से एक हैं। इनकी कविताओं में प्रकृति का जो विवरण होता है वो बहुत सुंदर है। बहुत से लेखकों ने उन्हे किसानी कवि की पदवी भी दी है।
उनकी किताब पढ़ी है अभी हाल ही में – प्रतिनिधि कविताएँ। और उनमें उनकी प्रकृति को लेकर नजर और अपने समाज के प्रति सजगता को बहुत सुंदर ढंग से लिखा है। वो डरते नहीं हैं, अपने समाज की बुराइयों को बताने में और अपने समाज के प्राकृतिक सौन्दर्य को बताने में चूकते नहीं है।
उनकी कविताओं से कुछ झलकियां यहाँ दे रहा हूँ। पूरी कविताओं के लिए किताब पढ़िए। आपको अपने बचपन के दिनों में गांवों में बिताये दिनों से प्यार हो जाएगा और हाँ किसानों और गांवों के लिए नई नजर मिलेगी।
केदारनाथ अग्रवाल की सामाजिक दृष्टि की झलकियां-
1. ये कविता यहाँ पर क्यूँ लिखी है, पता नहीं। पर उस समय जब आजादी को लेकर संघर्ष चल रहा था तो राजनीति पर कटाक्ष लेते हुए इन्होंने ये कहा था। और ये अपने में एक सवाल भी है जो मेरे हिसाब से उस समय पूरे देश के सवालों को शामिल करता है।
लंदन गये-लौट आये।
बोलौ। आजादी लाय?
नकली मिली या कि असली मिली है ?
कितनी दलाली में कितनी मिली है?
आधी तिहाई कि पूरी मिली है?
कच्ची कली है कि फूली-खिली है?
कैसे खड़े शरमाये?
बोलो! आजादी लाये?
राजा ने दी है कि वादा किया है?
पैथिक ने दी है कि वादा किया है?
आशा दिया है दिलासा दिया है।
ठेंगा दिखाकर रवाना किया है।
दोनों नयन भर लाये।
अच्छी अजादी लाये?
2.ये हमेशा से रहा है और रहेगा। मालिक और नौकरी के सही दृश्य को दिखलाते हुए ये पंक्तियाँ कही हैं –
मिल मालिक का बड़ा पेट है
बड़े पेट में बड़ी भूख है
बड़ी भूख में बड़ा जोर है
बड़े जोर में जुलुम घोर है.
3. सामाजिक कटाक्ष को साधते हुए उन्होंने नेताओं के ऊपर कहा है –
राम न ऐसा करि सके, जैसा नेतन कीन्हि।
लोगन का बनवास दै, सुख-सम्पति हरि लीन्हि।।
4.सामाजिक आईने को अपनी कविता से साफ करते हुए दिखते हैं यहाँ पर –
झूठ नहीं सच होगा साथी!
गढ़ने को जो चाहे गढ़ ले
मढ़ने को जो चाहे मढ़ ले
शासन के सौ रूप बदल ले
राम बना रावण सा चल ले
झूठ नहीं सच होगा साथी!
करने को जो चाहे कर ले
चलनी पर चढ़ सागर तर ले
चिउँटी पर चढ़ चाँद पकड़ ले
लड़ ले ऐटम बम से लड़ ले
झूठ नहीं सच होगा साथी!
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5.समाज की विवशता को दिखाते हुए –
ढेर लगा दिये हैं हमने
पुलों के
पहियों के
अपनी सदी के उस पार जाने के लिए
लेकिन पुल टूटे
पहिये टूटे हैं।
6.राजनीति पर कटाक्ष करते हुए –
न आग है, न पानी,
देश की राजनीति
बिना आग-पानी के
खिचड़ी पकाती है
जनता हवा खाती है।
7.फिरसे सामाजिक आईना साफ करते हुए –
जब भी-जहाँ भी,
कोई परदा जरा-सा ऊपर उठा,
आदमियों के बजाय शैतानों का समूह
वहाँ संसार को लूट-खसोट में दिखा।
8.ये जब उन्होंने लिखी थी तब भी सटीक थी, अब भी सटीक है –
देश के भीतर दहन और दाह है,
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वाह वाह है।
9.आदमी के चरित्र पर बात करते हुए –
मैं उसे खोजता हूँ
जो आदमी है
और
अब भी आदमी है
तबाह होकर भी आदमी है
चरित्र पर खड़ा
देवदार की तरह बड़ा।
10. यहाँ पर केदारनाथ अग्रवाल जी अपनी सोच को बता रहे हैं। हर व्यक्ति अलग अलग चीजों को admire करता है और यहाँ पर वो अपनी किसानी कवि की छवि को बहुत सुंदर ढंग से दिखाते हैं –
जिंदगी को
वह गढ़ेंगे जो शिलाएँ तोड़ते हैं,
जो भागीरथी नीर की निर्मय शिराएँ मोड़ते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठ मैं मानता हूँ!!
तो ये रहीं केदारनाथ अग्रवाल जी की किताब और कविता से कुछ झलकियां जो उनकी सामाजिक नजर को दिखाती हों। जो भी झलक अच्छी लगी हो, बताईएगा।
बाकी आईए, संवाद करते हैं।
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