निर्मल वर्मा ने किताब हर बारिश में कहा है – “जब हम कहानी में लिखते हैं, वह सितंबर की एक शाम थी – मैं उस सूनी सड़क पर चला जा रहा था, तब इस पंक्ति के लिखे जाने के एकदम बाद कुछ ऐसा हो गया है, जो शाम से बाहर है, उस सूनी सड़क से अलग है। वह ‘मैं’ उस व्यक्ति से अलग हो गया है, जो उस शाम सड़क पर चल रहा था। उस वाक्य का अपना एक अलग एकांत है, जो उस शाम की सूनी सड़क से अलग है। शब्दों ने उस शाम को मूर्त करने की प्रक्रिया में अपनी एक अलग मूर्ति गढ़ ली है, जिसकी नियति उस व्यक्ति की नियति से भिन्न है, जो ‘मैं’ हूँ।”
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और उन्होंने कहा है कि – “असली जीवन में वह शाम ‘अधूरी’ है। जो व्यक्ति सूनी सड़क पर चल रहा है, उसका अस्तित्व कम-से-कम उस शाम के लिए असंबद्ध है, नियतिहीन है, ‘uncommitted’ है।”
इन lines पर मेरी और कृष्ण की बातचीत-
मैं – यानि निर्मल वर्मा के according जो हो चुका है और जो मैं पन्ने पर लिखूँगा उसका अलग अलग जीवन चलेगा। लेकिन अगर मैंने ठीक ठीक वही लिख दिया जो हुआ था, तब?
कृष्ण – ऐसा हो नहीं सकता ना, क्यूंकि देखो, जो हुआ होता है, वो एक पूरी कहानी नहीं होती ना! अब जैसे जो हुआ होगा और जो तुम्हें याद है, example के लिए सुबह की बात है, स्मृति में तो उस सुबह की दोपहर नहीं होगी। लेकिन जब तुमने पन्ने पर लिख दिया कि ‘सुबह की बात है’, अब इस सुबह की दोपहर तो होगी ना, इसका जीवन तो शुरू हो चुका है।
मैं – लेकिन अगर मैं पन्ने वाली सुबह की दोपहर लिखूँ ही ना, तब? क्या स्मृति (memory) और लिखा हुआ एक नहीं हो गया? निर्मल वर्मा ने ये भी लिखा है कि –
“वास्तविक जीवन में सबकुछ बीत जाता है, बह जाता है। एक निगाह है, जो कुछ दूर जाकर रुक जाती है, कुछ शब्द हैं, जो हमेशा के लिए अनकहे रह जाते हैं।… यह यथार्थ की सीमा है – हर लेखक इस सीमा को अस्वीकार करके लिखता है। क्यूंकि वह सोचना चाहता है कि सितंबर की इस शाम में कुछ ऐसा है जो नहीं बीतेगा, यह सूनी सड़क अगले चौराहे पर जाकर खो नहीं जाएगी, और उस पर चलता व्यक्ति कुछ ऐसा कह सकेगा, जो कम-से-कम उस शाम के लिए उसकी नियति को उजागर करने में समर्थ होगा।”
तो अगर इस बात का मतलब निकालें और जाने कि यथार्थ एक दिन खत्म हो जाएगा, और लेखक, पेंटर या कोई भी कलाकर का काम है कि वो उन स्मृतियों में कुछ ऐसा खोजे और उसे लिखे या अपनी रचना में डाले कि उसकी नियति स्मृति से हटकर उसकी रचना में अंकित होकर हमेशा रहे। जैसे कि अलीबाबा और चालीस चोर की कहानी, जो अभी तक चलती आ रही है, 2000 सालों के बाद भी।
कृष्ण – फिर तो ये नियति हम लोगों ने दी। हमने उस कहानी के यथार्थ को कभी खत्म नहीं होने दिया।
मैं – तो क्या मान लें की यही एक कलाकार की सफलता है कि उसकी रचना का यथार्थ बाकी लोग कभी मरने ना दें!
कृष्ण – लेकिन यथार्थ तो हर पल बदलता रहता है!
मैं – तो रचनाकार का दायित्व ये हुआ कि वो हर पल बदलते यथार्थ को एक ऐसी चीज में बदल दे जो कभी नहीं बदलेगी!
कृष्ण – देखो, यथार्थ तो हर बदलता है तो उसे तो आप लिख ही नहीं सकते ना? जो चीज हर पल बदलती रहती है उसे लिखना मेरे हिसाब से मुमकिन नहीं, लेकिन उस यथार्थ में जो सत्य है वो नहीं बदलेगा, कोई भी रचनाकार उस सत्य को लिख सकता है, अपनी पेंटिंग में डाल सकता है जो जीवन पर्यंत रहेगा।
मैं – उस सत्य का महत्व क्या हुआ?
कृष्ण – देखा जाए तो कोई महत्व नहीं है, वो आप अपनी निजी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लिखते रहते हो। बस।
मैं – Okaaayy! तो फिर, जो भी आज तक लिखा गया है, या painting, scultping जैसी रचनाओं में दर्शाया गया है उसका कोई महत्व नहीं है।
कृष्ण – वैसे देखो, एक बड़े broad perspective में तो जाहिर सी बात है कोई महत्व नहीं है। आगे जमाना और आएगा, उनका यथार्थ बदलेगा, कुछ और चीजें लिखी जाएंगी, उनका लिखने का कुछ और नजरिया होगा, कहानियाँ बदलेंगी, कहानियों में जो लोग होंगे उनकी नियति कुछ और होगी। जैसे मान लो धर्मवीर भर्ती जी के उपन्यास “गुनाहों का देवता” के सुधा और चंदर की नियति उस समय के हिसाब से थी और वहीं एक सुधा और चंदर की कहानी दिव्य प्रकाश दुबे ने अपने उपन्यास “मुसाफिर cafe” में दिखाई है – वो इनके समय का सत्य है। अब बाद में और समय बदलेगा तो यही सुधा और चंदर रहेंगे लेकिन उनका सत्य और बदल जाएगा।
मैं – ठीक है! फिर ऐसा क्या है जो सदियों पुरानी कहानी को जैसा का तैसा हमारे जीवन में अभी तक लेकर चल रहा है – example के लिए रामायण।
कृष्ण – ये तो लोगों के ऊपर हुआ ना। हम लोगों ने उसे ऐसा रखा हुआ है। अब देखो, उसका नया रूप अमीश त्रिपाठी ने अपनी Ram trilogy में बताया है, हो सकता है वो सत्य हो कुछ लोगों के लिए। हो सकता आगे जाकर ये वाला सत्य भी चलने लगे।
मैं – यानि इन कहानियों में कुछ तो ऐसा होगा ना जो हमारे यथार्थ से अब भी मेल खाता होगा, तभी तो हम relate कर पाते होंगे और तभी शायद हम इन कहानियों को पीछे नहीं छोड़ रहे क्यूंकि रामायण के साथ भी बहुत कहानियाँ रही हैं, लेकिन उनमे से ज्यादातर को लोग भूल गए हैं।
कृष्ण – इसका करण है – हमारा अपना डर। रामायण के रावण से हम resonate करते हैं कि बुराई है और उसे मारना बहुत जरूरी है।
मैं – तो अच्छी कहानी वो हुई जिसका सत्य हर समय के सत्य से resonate होता रहे?
कृष्ण – लगता तो यही है।
मैं – फिर एक लेखक के तौर पर… कोई लेखक ये तो सोचकर नहीं लिख सकता ना कि मैं आज जो लिख रहा हूँ वो आज से 10 साल बाद कि situation से resonate होगा? ये तो plan भी नहीं कर सकते! फिर क्या करें?
कृष्ण – लेखक के तौर पर आप इतना ही कर सकते हो – जो उस समय का सत्य है, उसे पूर्णतः वैसा ही लिख दिया जाए। और यहाँ पर सारी जिम्मेदारी लेखक की भी नहीं है। लेखक के हाथ में सिर्फ इतना है कि – उस कहानी कि situation और कहानी जिस संसार में है – उसका जितना सत्य लेखक बता सके उतना बेहतर। और आगे की नियत आप समय पर छोड़ दीजिए।
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बिखेरने की आज़ादी और समेटने का सुख – लिखने की इससे बेहतर परिभाषा की खोज में निकला एक व्यक्ति। अभिनय से थककर शब्दों के बीच सोने के लिए अलसाया आदमी।
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