The Social Dilemma | Why Should You Watch It Right Now?

The Social Dilemma | Why Should You Watch It Right Now?

“The social Dilemma” 2020 में बनी एक वृतचित्र है यानी कि एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म है। इसे जेफ ओरलोवस्की ने डायरेक्ट करा है और यह नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है। जैसा कि फ़िल्म के नाम से ही पता चलता है यह फ़िल्म सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और उनसे जुड़े हमारे Dilemma पर बात करती है।

फ़िल्म की शुरुआत में हम कुछ लोगों को इंटरव्यू के लिए तैयार होते हुए देखते हैं जिसमें एक आदमी कैमरे के पीछे से उनसे सवाल पूछता है। यह सभी लोग कुछ बड़ी सोशल मीडिया कंपनियों जैसे कि फेसबुक, ट्विट्टर, इंस्टाग्राम और गूगल के भूतपूर्व कर्मचारी होते हैं। इनमें से एक महत्वपूर्ण व्यक्ति Tristan Harris हैं जो कि Centre for Humane Technology के co-founder हैं।

यह सभी लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और उनका हमारे निजी जीवन पर, हमारी सोच पर किस प्रकार से असर पड़ता है और किस हद तक असर पड़ता है इस बारे में बात करते नज़र आते हैं। सबसे पहला सवाल जो सच में थोड़ा सोचने पर मजबूर करता है वो यह कि इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के असल ग्राहक(customers) कौन है? आप सभी की तरह मेरे दिमाग में भी यही जवाब आया कि हम, हमारे जैसे उपयोगकर्ता। लेकिन फ़िर समझ आया कि असल ग्राहक हम नहीं है, असल ग्राहक तो वह कम्पनियाँ हैं जो इन प्लेटफॉर्म्स पर विज्ञापन देती हैं अपने सामान का या अपने बिज़नेस का। अब दुकानदार या बेचने वाला कौन है यह पता है और ग्राहक कौन है यह भी पता है तो फ़िर मन में सवाल आता है कि हम कौन हैं इन सब के बीच? हमारा होना क्यूँ ज़रूरी है इतना? और एक सवाल यह भी आता है की असल में बेचा क्या जा रहा है? इन सारे सवालों का जवाब फ़िल्म में कही इस बात में मिलता है “If you’re not paying for the product, then you are the product.”

यानी कि असल में जो बेचा जा रहा है वो हम हैं – हमारा ध्यान, हमारा attention बेचा जा रहा है। सुनने में थोड़ा धक्का सा ज़रूर लगता है एक पल के लिए लेकिन फ़िर वही खयाल आता है की इसमें हमारा क्या नुकसान है? इसके लिए फ़िल्म में कही उस बात का निहितार्थ समझना ज़रूरी है – जो बेचा जा रहा है दरअसल वो एक संभावना है कि हमारे ध्यान की मदद से असल जीवन में हमारे व्यवहार को उन विज्ञापन देने वाली कम्पनियों के हित में करा जा सकता है, जिससे हम और भी ज़्यादा उपभोक्तावादी बनते जाएँ और उन कम्पनियों का सामान खरीदें।

पर ज़रा सोचिए कि क्या यह सब सिर्फ़ इन कंपनियों तक ही सीमित रहता है? आगर रहता तो इतनी परेशानी नहीं होती क्योंकि हमारे चारों ओर विज्ञापन ही विज्ञापन हैं, विज्ञापन देना कम्पनियों का काम है और उनके सामान को खरीदना ना खरीदना हमारी ज़रूरत और इच्छा की बात है।

पर नहीं सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के काम करने का यह पूरा मॉडल सिर्फ़ इन कंपनियों तक ही सीमित नहीं रहता और लगभग हमारे जीवन के हर पहलू को एक अजीब रूप में मरोड़ देता है। यह समझाने के लिए फ़िल्म में कही जा रही हर बात के समानांतर एक साधारण से मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी भी दिखाई जाती है जिससे हम हर बात को अपने रोज़मर्रा के जीवन से जोड़ कर बेहतर समझ सकें। कहानी मुख्य रूप से एक हाई स्कूल में पढ़ने वाले किशोरावस्था के लड़के पर केंद्रित रहती है। जब इंटरव्यू दे रहे लोग यह समझा रहे होतें हैं कि कैसे फ़ोन में नोटिफिकेशन्स का इस्तेमाल किया जाता है आपका ध्यान बार बार इन्हीं प्लेटफॉर्म्स में लगाए रखने के लिए तो हम देखते हैं कि लड़के के फ़ोन में नोटिफिकेशन बार बार आते हैं और वो पढ़ाई या कुछ और करने से भटक जाता है।

जब फ़िल्म में बात इन प्लेटफॉर्म्स में इस्तेमाल होने वाले अल्गोरिथम्स कि होती है – कि वह कैसे काम करते रहते हैं लगातार यह समझने के लिए की हमें क्या देखना पसंद है, किस तरह की हमारी विचारधारा है, हमारा व्यवहार कैसा है – और इन सब बातों से जुड़े डेटा के इस्तेमाल से किस प्रकार से समाज में ध्रुवीकरण और कट्टरता बढ़ती जा रही है तो इसको बेहतर रूप से समझाने के लिए फ़िल्म साइंस फ़िक्शन फिल्मों जैसे विसुअल्स का इस्तेमाल करती है जिनके जाल में फँसा वो लड़का एक कठपुतली की तरह एक ही पहलू दिखाने वाले राजनीतिक नरेटिव, कॉन्सपिरेसी थीओरीस और झूठे समाचारों का शिकार बनता चला जाता है।

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फ़िल्म में Tristan Harris एक बात कहते हैं की “It’s confusing because it’s simultaneous utopia and dystopia” और यह बात बिल्कुल सटीक बैठती है हमारी आज की दुनिया पर। आज हम जहाँ पर खड़े हैं वहाँ से चाहकर भी वापिस नहीं लौटा जा सकता और शायद वापिस लौटने की चाह रखना भी एक तरह की बेवकूफ़ी ही है।

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सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के शुरुआती सालों में किसी ने कभी यह नहीं सोचा था कि यह हम सबके जीवन को इस तरह से बदल देगा। अब सवाल यह नहीं है कि इसे हमारे जीवन को बदलने से रोकना चाहिए या नहीं, यह हमारे जीवन को बदलता रहेगा लगातार इसमें कोई दो राय नहीं है। तो फ़िर असली सवाल क्या है? शायद यह की किस हद तक और किस दिशा में हमें इसे अपने जीवन को बदलते रहने की इजाज़त देनी चाहिए। इस बदलाव की दिशा को तय करना कुछ हद तक अभी भी हमारे हाथों में हैं, छोटी छोटी बातें जो हम बहुत ही सहजता से बिना सोचे नज़रंदाज़ कर देते हैं उन्हीं में अगर गौर से देखा जाए तो लगता है कि कितना कुछ अभी भी संभाला जा सकता है।

तो इन सबके बारे में मंथन करिए मन में और थोड़ा ज़्यादा बेहतरी से जानने या विचार करने का मन करे तो यह फ़िल्म देखिए। The Social Dilemma (Netflix) – Click Here.

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