क्या कभी देखा है किसी फ़िल्म के पहले दृश्य में फ़िल्म की नायिका को पसीने में तर नाचते हुए? अरे नहीं.. वो माधुरी दीक्षित वाला मादक, पसीने में तर नाचने का दृश्य नहीं। मादकता से दूर या यूँ कहें कि male gaze और बाज़ार की बनाई सुंदरता की परिभाषा से दूर कैमरा की इस नज़र में तुम्हें वो पसीना दिखेगा जो नाचते हुए हमारी बगलों और पीठ से चिपका पड़ा रहता है भद्दी बेडौल सी शक्ल बनाए। पसीना वो जिसे देख तुम हल्का सा असहज हो जाओगे क्यूँकि सिनेमा के पर्दे पर यह दिखाने का रिवाज नहीं हमारे यहाँ।
इस फ़िल्म में हर जगह तुम्हें वही सब दिखेगा जिसे उसके असल रूप में दिखाने का रिवाज हमारे यहाँ सिनेमा में नहीं है। सिनेमा छोड़ो असल जीवन में भी नहीं है। और फ़िल्म के इस शुरुआती एक सेकंड के सीक्वेंस को तुम अगर गौर से देखोगे तो लगेगा कि अगर हमें किसी की पहली झलक एक तरह की परिभाषा में फिट होती दिखाई देती है तो हम उसे बहुत जल्दी स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन जैसे ही पता चलता है कि ‘अरे वह तो वैसा नहीं दिखता है जैसा हम सोच के आए थे’ तो उसे स्वीकारने में हल्की सी असहजता होती है।
और ठीक यही बात हमें समझाने के लिए फ़िल्म के निर्देशक ने इसी पहली झलक के खेल में एक बहुत छोटी सी चालाकी अपनाई है। जैसे ही तुम्हें यह चालाकी पकड़ में आएगी (नहीं बताऊँगी कि क्या.. यह तुम खुद समझना), तुम्हें सबसे पहले लगेगा कि तुम्हारे साथ धोखा हुआ है.. तुम ठगे गए हो (जैसा कि ठीक मुझे लगा था) भले ही उस क्षण के गुज़रने के बाद तुम कहो कि “हाँ, सही तो है सब कुछ”। तब मेरी यह बात याद करना.. समझ आएगा कि यह ठगा जाना कितना कुछ कहता है हमारे बारे में और क्यूँ इतना ज़रूरी था। और इस ठगे जाने से कोई भी अछूता नहीं है.. मर्द हो या औरत या कोई और क्यूँकि हम सब एक ही समाज/बाज़ार की पैदाइश हैं।
फ़िल्म का नाम है “The Great Indian Kitchen“. जब पहली बार नाम सुना था तो लगा कोई हँसती खेलती सी comedy drama फ़िल्म होगी। लेकिन जब Film देखी तो सबसे पहले मन हुआ कि इसके लेखक और निर्देशक Jeo Baby के हाथ चूम लूँ। फ़िर उसके बाद फ़िल्म के सिनेमेटोग्राफर Salu K Thomas की आँखों को चूम लूँ और फ़िर फ़िल्म की अभिनेत्री Nimisha Sajayan का माथा चूम लूँ। इन तीनों को मेरा नमन है।
एक तो सबसे पहली चीज़ इस फ़िल्म के बारे में कि तुम्हें बिल्कुल नहीं लगेगा कि कोई फ़िल्म देख रहे हो, इतनी घर वाली फ़ीलिंग आएगी इसे देख के। और आनी भी चाहिए, यह हम सब के “घरों” के बारे में ही तो है। घर – अपनी अच्छाइयों और कमियों दोनों को साथ लिए। कहानी बहुत सरल है, बस एक घर के चार लोगों के इर्द गिर्द घूमती हुई। रोज़ मर्रा की ज़िंदगी के साधारण से दिनों का एक लूप!! (देखना कैसे यह इसी घेरे में रहते हुए हमारे पूरे समाज को छूती है) हर सीन में तुम्हें लगेगा कि यार यह तो रोज़ मैं अपने घर में ठीक इसी रूप में जीता/जीती हूँ। और इसके साथ ही शायद एक ग्लानि भी होगी कि रोज़ यह घर में जीते हैं लेकिन फ़िर भी इसे अनदेखा कर देते हैं। शायद माँ, बहन, भाभी, पत्नी से माफ़ी माँगने का मन भी हो।
और दूसरी चीज़ यह कि पर्दे पर सब कुछ presentable दिखाने की एक प्रवत्ति सी हमारे भीतर होती है हमेशा जिसके चलते हम सेट से लेकर एक्टर्स तक सबको एक सुंदर तस्वीर जैसा दिखाने में लगे रहते हैं। लेकिन इस फ़िल्म में यह चीज़ कहीं नहीं दिखी। (लेकिन फिर भी फ़िल्म का एक एक फ्रेम चूमनीय था।) फिल्म की सेटिंग जिस घर में है उसे देख के लगा कि यह तो बिल्कुल मेरे घर जैसा है। इसकी रसोई बिल्कुल वैसी है जैसी हममें से अधिकतर के घर होती है। कोई फिल्मी साज सजावट या दिखावा नहीं। और पता फ़िल्म की कास्टिंग चॉइस को लेके भी यही बात मन में आई थी। मुझे बहुत अच्छा लगा यह देख के की फ़िल्म में मुख्य रोल करने के लिए Nimisha Sajayan के शरीर से लेके उनके चेहरे और बालों तक कुछ नहीं बदला गया। वो जैसी हैं वैसी की वैसी ही दिखाई गयीं। जैसे कि हम सब होते हैं अपने घरों में, अपने जैसे। बहुत से ऐसे दृश्य हैं जिनमे आप उनके चेहरे पर काफ़ी सारी फुंसियाँ एक दम साफ़ देख सकते हो। जिसे देखकर मैं बहुत चहक उठी थी.. पहली बार लगा कि किसी चमचमाती अभिनेत्री को नहीं बल्कि एक इंसानों जैसी इंसान को देख रही हूँ।
तब मन में एक सवाल आया कि किसी फ़िल्म के मुख्य किरदार के लिए हमारे बॉलीवुड में Nimisha Sajayan जैसी शानदार अभिनेत्री को तो शायद ही कभी मौका मिलता। आज तक भी मिला है क्या?! और फ़िर लगा कि जो फ़िल्म में घर के सारे काम.. जिसमें गंदे पानी से भरे सिंक को, थाली में पड़ी जूठन को, किचन के लीक होते पानी और कचरे के डिब्बे को साफ़ करना बाकायदा अपने हाथों से, झाड़ू पोंछा करना, सब्ज़ी काटना, खाना बनाना शामिल है.. और वो भी एक या दो सीन के लिए नहीं बल्कि फ़िल्म के 90% सीन्स में यही करना.. बॉलीवुड में तो शायद ही कोई अभिनेत्री ये करती और शायद ही कोई निर्देशक उनसे ये करवाता।
यह फ़िल्म जिस तरह से बॉडी पोसिटिव है एक्टर्स को लेके और जैसे इसमें male gaze को हटाकर औरतों को बिना किसी sexualisation के दिखाया गया है (जिससे तुम्हारी सुंदरता को देखने की नज़र पक्का बदलेगी) उसे देख मलयालम सिनेमा के लिए और भी इज्जत बढ़ जाती है मन में। (काश हिंदी सिनेमा भी इससे कुछ सीख पाए!)
फ़िल्म की पूरी सेटिंग, कॉस्ट्यूम, मेकअप, दृश्य, साउंड्स, म्यूज़िक से लेकर पात्रों तक.. हर पहलू में एक अजीब सी ईमानदारी है। जो बहुत कम देखने को मिलती है। सारे पात्र जीवन के बेहद करीब लगेंगे.. उनका होना इतना सामान्य की लगेगा बिल्कुल असली लोग हैं। उनके सँवाद इतने सहज.. अपनी असहजता और कड़वाहट में भी! और यहीं फ़िल्म की brilliance है, साइलेंस के इस्तेमाल में। इतना सटीक! मतलब सँवाद हैं लेकिन बिना कोई नाटकीयता लिए, जितने ज़रूरी हों बस उतने ही। घर नाम की फ़ाइल से निकाले हुए बिल्कुल वैसे जैसे एक घर में सुनाई पड़ते हैं। और इन सँवादों के बीच की खाली जगहों में जब पात्र एक दूसरे के कहे हुए शब्दों को निगल रहे होते हैं तो उनके चेहरे पर जो उभर कर आता है.. वो असहज चुप जो पसरा रहता है उनके बीच.. उसमें लगता है कि यार सारा कुछ तो इसी चुप में निहित है! पूरी फ़िल्म का निचोड़ तो इसी में है.. जो फ़िल्म कम्यूनिकेट करना चाहती है हमसे। और इस चुप को उसके पूरे गुस्से, घिन, झल्लाहट, आँसुओं और असहजता में पूरी ईमानदारी से जिया है Nimisha Sajayan ने अपने अभिनय से।
साथी से बात कर रही थी तो कहा था कि इससे सरल और सटीक कोई तरीका नहीं था हमारे समाज की इस जटिल समस्या को दिखाने का जो अब इतने चालाक रूप में अपने पैर हमारे घरों में जमाए बैठी है कि जिसे देखने के लिए हमें भीतर.. बहुत भीतर, बाहर की दीवारों पर पुते आधुनिकता के रंग रोगन से परे अपने घर के किचन में जाना होगा और हाथ डालना होगा उस गिजगिजे, बदबूदार, हमारी थालियों में थूकी हुई पितृसत्ता की जूठन से सड़ांध मारते कचरेदान में। क्यूँकि आज भी हमारे असली मैनर्स फ़िर चाहे वो टेबल से जुड़े हों या हमारी सोच से.. उनकी असली तस्वीर घर के किचन में सबके खाना खाकर उठ जाने के बाद ही दिखाई देती है।
इस फ़िल्म का यह नाम इसीलिए इतना सटीक है। किसी तमाचे सा। लेकिन तमाचा वो जिसे हम पूरी भीड़ में बहुत अकेले कहीं.. घर की दीवारों जैसी सुरक्षा में महसूस करते हैं। जिसकी आवाज़ किसी को सुनाई नहीं देती हमारे सिवा। और इस तमाचे में कोई हिंसा का भाव भी नहीं होता उलटा यह हमें हमारी उन सारी हिंसाओं का एहसास कराता है जो कभी किसी को नहीं दिखीं.. छुपा दीं गयीं एक असहज मुस्कान के पीछे उन औरतों के द्वारा जो हमारे “The Great Indian Kitchen” में खाना पकाती, बर्तन माँझती, मर्दों की झूठन साफ़ करती पाई जाती हैं। वो औरतें जो अशुद्ध होती हैं। जिनके दिखने से, छू जाने से नाराज़ रहते हैं भगवान और गुस्सा होते हैं असली मर्द।
तुम देखना इसे.. इस फ़िल्म को.. इन सारी असहज कर देने वाली चीज़ों को और तुम्हें पता चलेगा कि इसमें भी कैसे cinematic brilliance and beauty निकाल कर सामने रखी जा सकती है इतने करीने से। फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी इतनी प्यारी है कि प्रेम हो जाएगा तुम्हें। इतनी रियल, इतनी ऑर्गेनिक, और इतनी खूबसूरत! (इसपर एक पूरी अलग पोस्ट लिखी जा सकती है)
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अंत में मैं बस इतना ही कहूँगी की इस फ़िल्म का देखा जाना बहुत ज़रूरी है खासकर हमारे आज के समय में। क्यूँकि हमारे अभी के समाज में जिस तरह से पितृसत्ता exist करती है वो अब पहले के समय से बहुत अलग है। ऊपर से देखने पर हमें यह भ्रम हमेशा बना रहता है कि अब हम बहुत आधुनिक हो गए हैं क्यूँकि “अरे हमने सती प्रथा कबकी पीछे छोड़ दी”, हमें लगता है हमने लैंगिक समानता achieve कर ली है क्यूँकि “अब औरतें भी वोट दे लेती हैं.. पहले थोड़ी ना देती थीं”, हम कहते हैं औरतें अब आज़ाद हैं क्यूँकि “औरतों को सारी छूट दे दी है हमने.. अब उनके पति उन्हें काम करने देते हैं और पढ़ने लिखने देते हैं शादी के बाद भी”। यह फ़िल्म तुम्हें और कुछ नहीं बताएगी बस इतना सा ही एहसास दिलाएगी की “छूट दे दी”, “इजाज़त है”, “इन औरतों को और कितनी आज़ादी चाहिए”, “फेमिनिस्टों से समाज/मर्दों को खतरा है” जैसे वाक्यों में ही पितृसत्ता जीवित है आज हमारे समाज में.. हमारे घरों में.. हमारे भीतर।
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Some shots from The Great Indian Kitchen
“मुझे शब्द बहुत पसंद हैं।” –
Bio माँगा तो कहा कि बस इतना ही लिख दो। छोटा, सटीक और सरल। Instagram bio में खुद को किताबी कीड़ा बताती हैं और वहाँ पर किताबों के बारे मे लिखती हैं। इनको आप Medium पर भी पढ़ सकते हैं।
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