निर्मल वर्मा के बहाने - एक लेख

मेरे भीतर काफ़ी देर से निर्मल वर्मा रिस रहे थे। मैं उन्हें कुछ देर और पढ़ना चाहती थी लेकिन इस वक़्त भीतर इतना तृप्त हो चुका था की कुछ देर बाहर टहलने का मन हुआ। आँगन में अँधेरा था। मार्च की गर्म रात में हल्की ठंडी, भीनी भीनी सी हवा चल रही थी। हवा के झोंकों का एक रेला मेरे बालों को छूकर गुज़र रहा था और मैं मुस्कुराती हुई टहल रही थी। तभी मेरी नज़र जाली के दरवाज़े से भीतर होती हुई मेरी माँ पर पड़ी। वो खाना खा रही थीं। भीतर सब रोशन था। मैं बाहर आँगन के अँधेरे में अकेली खड़ी उन्हें बहुत देर तक खाना खाते हुए देखती रही। मुझे मेरा घर हवा में तैरते किसी रोशनी के टापू सा लगने लगा जो बस एक हाथ की दूरी पर था – जिसे मैं दूर किसी नदी के किनारे पर खड़ी काली बहती छायाओं के परे देख रही थी। और ठीक उसी वक़्त मैं अपने भीतर से उठकर बगल में जाकर बैठ गयी। मेरा एक हिस्सा मुझसे दूर बैठकर मुझे वहाँ खड़ा हुआ देख रहा था और इस पूरे के पूरे दृश्य को लिख रहा था। मैं वहाँ दरवाज़े के सामने खड़ी भीतर से उस हिस्से को मुझे लिखता हुआ देख रही थी और यह सोच रही थी कि जब मैं यह सब असल में लिख रही होऊँगी तो ‘उस दूसरे मैं के मुझे लिखने’ के इस दृश्य को कैसे लिखूँगी? और अब जब मैं असल में यह सारा कुछ लिख रही हूँ तो ज़ोर से हँसने का मन कर रहा है क्यूँकि इस वक़्त कुछ भी वैसा नहीं है जैसा मैं उस वक़्त – दो अलग जगहों पर बैठी दो अलग तरीकों से – सोच रही थी कि मैं लिखूँगी।

क्या हम कभी भी वैसा लिख पाते हैं जो हमने लिखने से पहले सोचा था कि हम ऐसा लिखेंगे? आखिर हमारा असल लेखन कौन सा होता है – जो हम सोचते वक़्त लिखते हैं या जो हम लिखते वक़्त सच में लिखते हैं? पर इस सवाल का यह जवाब कितना सही है कि असल में दोनों ही अपने अपने समय(क्षणों) का सत्य होते हैं और क्यूँकि सत्य क्षणिक होता है इसलिए दोनों ही अपने होने में पूरे और जीवित होते हैं उस वक़्त। और इसीलिए यह चाहना की यह दोनों बिल्कुल एक ही हों, यह अपने लेखन के साथ धोखा है क्यूँकि हर बार का लिखना अलग होता है – क्षण दर क्षण एक सत्य की अँधेरी चोटी से दूसरी अँधेरी चोटी को लाँघता हुआ – भले ही बात अंत में एक ही कहनी हो। एक क्षण से दूसरे क्षण तक की अंधी छलाँग में हम बस हमारी पिछली छलाँग के सत्य का हल्का मद्धिम आलोक अपने साथ लेकर चल सकते हैं ताकि अगले क्षण हम उसके उजाले में कुछ और नया चमकता सा खोज सकें।

Adhuri Chizon Ka Devta – Geet Chaturvedi | The Third Eye of the Poet

इस “जो उस वक़्त हो रहा था” और “जो इस वक़्त हो रहा है” के बीच लगातार भटकते हुए जब मैं वापिस उसी रात में समय के उस सिरे पर पहुँचने की कोशिश कर रही हूँ जहाँ मैंने खुद को अपने घर के दरवाज़े के आगे अँधेरे आँगन में खड़ा हुआ छोड़ा था – ताकि मैं ठीक वहीं से आगे बढ़ सकूँ – तभी अचानक मुझे एहसास हुआ कि हम अपने लिखे में कैसे समय के दो अलग अलग बिंदुओं के बीच एक wormhole सा बना देते हैं जिसकी अनजान घूमी हुई.. एक दूसरे में लगातार समाती हुई.. गलियाँ हमें कभी समय के इस घेरे में पटक देती हैं तो कभी उस घेरे में। एक लेखक किसी सधे हुए माहिर जासूस सा हर वक़्त अपने लिखे के ज़रिए अपने जीवन की अनंत गलियों में टाइम ट्रेवल सा करता फिरता है – कभी वो पास्ट की गहरी खाइयों में गोते लगा रहा होता है तो दूसरे ही क्षण प्रेज़ेंट के चारों और फैले समतल हरे मैदान में बवंडरों की धूल खा रहा होता है और फ़िर अचानक किसी गुड़कती हुई गेंद सा फ्यूचर के उबड़ खाबड़ अनजान (डरावने) उतार चढ़ावों पर मचकता रहता है – और अधिकतर समय उसे इसका एहसास भी नहीं होता!

मैं भटकते भटकते अब वापिस उसी रात की गली में लौट आई हूँ – आकर खुद की खाल में उसी सहजता से घुस गई हूँ जैसे दरवाज़ा खोलकर कोई अपने कमरे में घुसता है। मेरे अपने भीतर घुसते ही अचानक घर का मुख्य द्वार खुला, कोई भीतर आया था। मैं बाहर चली आई। रास्ते में टहलते हुए मैं गर्दन ऊपर करके आसमान के काले गुप में तारों को ताक रही थी। आज ना जाने क्यूँ ऐसा लग रहा था मानो किसी ने आसमान की सतह पर जमी बहुत दिनों की धूल झाड़ दी हो और उसमें पड़े सारे तारों की कोई सुंदर प्रदर्शनी लगा दी हो। सारे तारे आसमान के फ़र्श पर बेतरतीब से बिखरे पड़े थे और मैं उनमें कोई पैटर्न ढूँढ रही थी – हम पूरा जीवन यही तो करते आये हैं! मेरी नज़र उस नक्षत्र पर पड़ी जिसे मैंने बचपन में एक बार छत पर सोते हुए ऐसे ही साफ़ अँधेरे आसमान में देखा था। इस नक्षत्र में सात भोले – किसी गोल मटोल बच्चे से दिखने वाले – तारे एक प्रश्नचिन्ह की तरह कुंडली मारे आकाश पर बैठे थे। आज इसे बहुत देर तक देखने पर एहसास हुआ मानो यह नक्षत्र समूची मानव जाती पर – मुझ पर – अजीब व्यंगात्मक ढँग से हँस रहा हो। मानो हमारे जीवन की, इस ब्रह्मांड की, अपने खुद के होने की, हमारे सारे सवालों की absurdity पर अट्टहास कर रहा हो। मुझे उसकी इस हरकत पर भीतर कुछ चुभा और मैं हँसने लगी।

कोई लेखक किस कदर आप पर भीतर तक असर कर सकता है – यह मैंने बीते दिनों निर्मल वर्मा की किताब “धुँध से उठती धुन” पढ़ते हुए महसूस करा। 20 फरवरी से निर्मल वर्मा मेरे साथ चल रहे हैं इस किताब के रूप में और अभी डेढ़ महीने से भी ऊपर गुज़र जाने के बाद ऐसा लगता है मानो यह किताब जीवन भर तक मेरे साथ चलती रहेगी। क्या यह कहना कोई अतिशयोक्ति है? शायद नहीं। निर्मल वर्मा ने इस किताब के अंतिम पन्नों पर कहीं लिखा था –

कभी कभी किसी जगह को देखकर भी अपना पुराना लिखा हुआ याद आता है – जैसे किसी खोये हुए व्यक्ति को देखकर अपना पुराना दुख – और तब पता चलता है कि मरने से पहले हमने अपनी ज़िंदगी का कितना हिस्सा – जीते जी – किन-किन अजीब जगहों और व्यक्तियों में दफना दिया है – उन यहूदी बन्दियों की तरह – जो नात्सी अफसरों के आदेश पर – मरने से पहले अपनी कब्र खुद तैयार किया करते थे..

-निर्मल वर्मा | धुँध से उठती धुन

इस बात को पढ़ते ही सबसे पहले तो यह ख्याल आया कि जो वक़्त मैंने निर्मल वर्मा के साथ इस किताब को पढ़ते हुए बिताया है.. इसकी छितराई छाया में जो जीवन मैंने जितने भी दिन जिया है, उसके हिस्से अब इस किताब के पन्नों से पूरी तरह चिपक चुके हैं और जीवन भर इसी में छुपे रहेंगे। ऐसी किताबें कितनी अनमोल होती हैं जो आपके भीतर अपना घर बना लेती हैं और आप उनके भीतर कहीं। दोनों दरवाज़ों के खुलते ही सारा बिताया हुआ समय– वो क्षण, उस समय की पीड़ा, सुख, जीवन – सब किसी हवा के झोंके सा तुमसे होकर गुज़र जाता है और एक पुराने दोस्त से मिलने जैसी आत्मीयता का बोध भीतर सब ठीक कर देता है। और फ़िर इस किताब की उँगली पकड़ अचानक आँखों के आगे से पूरे जीवन का एक रेला सा गुज़र गया जहाँ मुझे लगा ना जाने मैंने ऐसी और कितनी किताबों, कितने लोगों और कितनी जगहों में अपने जीवन के कौन कौन से हिस्से छुपा दिए होंगे। (खासकर कि लेखकों में!)

मैं और कृष्ण | यथार्थ लिखने पर बातचीत

सोचते सोचते एक अजीब सवाल मन में कौंधने लगा – हम कुछ भी क्यूँ छुपाते हैं? इसलिए कि वो चीज़ें हमें याद रहें या वो हमारी स्मृति से लोप हो जाएँ? और जो चीज़ें हम कहीं छुपा कर सच में भूल जाते होंगे उनका क्या होता होगा? क्या यह सब किसी अदृश्य टापू पर जाकर जमा हो जाती होंगी एक ऐसा जीवन जीने जो भुलाया जा चुका है? क्या हम सब भी एक अनजान – असल दुनिया से अदृश्य – टापू पर ऐसा ही भुलाया जा चुका जीवन तो नहीं जी रहे हैं? शायद इसीलिए हम इतनी सदियों की भरसक कोशिश के बाद भी इस बात का सर पैर पकड़ने में असमर्थ हैं की हम यहाँ क्यूँ हैं और क्या कर रहे हैं?

इन दिनों ठीक यही सारे, ऐसे ही निरर्थक सवाल अपने होने की पूरी निरर्थकता के साथ मेरे भीतर घूमते रहे हैं। बीच में एक पूरा हफ़्ता तो ऐसा गुज़रा जिसमें एक ऐसी गहरी उदासीन निरर्थकता का बोध मुझे दबोचे हुए था कि उसकी पकड़ से निकल पाना असंभव जान पड़ता था। उस वक़्त लगा मानो मुझे किसी ने जीवन की बहती धार से अचानक उठा कर किनारे पर छिटक दिया हो, किसी चाय में गलती से पड़ी मक्खी की तरह और अब मैं अपने साथ क्या करूँ.. कैसे सहूँ कुछ भी.. इस पूरे जीवन का सर पैर कैसे पकडूँ.. यह समझ नहीं आ रहा था। तब लगा कि निर्मल वर्मा को पढ़ते हुए जीवन की अबसरडीटी पर कामू की कही बातों का कितना गहरा असर हो रहा है मुझपर। यानी एक लेखक को पढ़ते हुए मैं किसी दूसरे लेखक की बातों को इतनी सघनता से महसूस कर रही हूँ, उन्हें ज़्यादा बेहतर समझ रही हूँ!

जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभ यदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें? किंतु ऐसे भी लोग हैं जो जीवन भर दूसरों के साथ रहने का कष्ट भोगते हैं ताकि अंत में अकेले न मरना पड़े।

-निर्मल वर्मा | धुँध से उठती धुन

निर्मल वर्मा की डायरी पढ़ते हुए यह एहसास हुआ कि यह पूरी किताब उनके जीवन के उस विराट अकेलेपन की आँधी में, एक अकेले पत्ते सी फड़फड़ाती हुई उनकी आत्मा के हर पीड़ा भरे, कँपकँपाते क्षणों की साक्षी रही है। उन्होनें एक बार कहा था इसी किताब में कि “जिस दिन मैं अपने अकेलेपन का सामना कर पाऊँगा – बिना किसी आशा के – ठीक तब मेरे लिए आशा होगी, कि मैं अकेलेपन में जी सकूँ”। कितनी ही बार वो सुबह उठते, रात के अपने अजीब गड्ड्मड्ड् से सपनों की छाया से तर और अपने को एक गहरे विषाद और चारों तरफ़ फैले हुए अकेलेपन से घिरा पाते। एकांत नहीं, अकेलापन। लेकिन वो अपनी इन पीड़ा के क्षणों में भी इतने स्वच्छ और पवित्र लगते की उनके शब्दों को पढ़ के भीतर ही भीतर कुछ टूटता जाता और साथ ही एक अजीब सा ढाँढस भी बंधता जाता जीवन को लेके।

Dahli – Lallantop’s Documentary is Beyond The Statistics

मुझे याद है कि जब वो आयोवा गए थे तो उन्होंने कैसे वहाँ के पतझड़ का इतना उदास लेकिन अपनी उदासी में इतना सम्पूर्ण और सुंदर वर्णन किया था कि मैं रोज़ सुबह कॉलेज जाते वक़्त बहुत देर तक हर पेड़ के नीचे खड़ी उन्हें देखती रहती थी – हर पेड़ इस समय नँगा हो चुका था पूरी तरह से और उनके नीचे बिखरे सूखे पत्तों का तालाब मेरे पैरों के नीचे जब चरमराता तो मेरे बहुत भीतर कुछ घुमड़ने लगता, कुछ बहुत ठहरा हुआ उदास सा और मेरा गला भर जाता। ऐसे ही एक दिन जब मैं कॉलेज से घर आई तो देखा कि सामने वाले घर पर लगे सारे पेड़ों की घनी हरी भरी टहनियों को काटकर छोटा कर दिया गया है तो यह सहा नहीं गया और बिना कुछ सोचे समझे अचानक आँखें भीग गयीं। कुछ दिनों तक उन हरे भरे पेड़ों की जगह खाली निपट सूनेपन को देख मन अजीब हो जाता था। लेकिन फ़िर कुछ समय बाद एक दिन मैंने स्कूटर पर जाते हुए यूँ ही सर घुमा कर देखा तो सारे पेड़ जो नँगे हो गए थे अब वो मुलायम हरी कोंपलों की चादर ओढ़े थे और उस वक़्त मेरे भीतर की खुशी का ठिकाना नहीं था! मानो बहुत गहरी उदासी के जंगल से अचानक एक मुस्कुराती हुई सुंदर तितली बाहर आई हो।

इस किताब में निर्मल वर्मा के दो बहुत ही सुंदर और महत्वपूर्ण लेख भी शामिल हैं – “जहाँ कोई वापसी नहीं” और “सुलगती टहनी”। पहला लेख जो कि सिंगरौली के बारे में है – इस जगह का नाम भी हम में से बहुत कम लोग ही जानते होंगे तो इस जगह के लोगों के जीवन की आज़ादी के समय से चली आ रही अपने जंगलों और ज़मीनों को कोयला खदानों से बचाने की संघर्ष की लड़ाई और सरकार द्वारा बार बार विस्थापित किये जाने के चक्र की वजह से जो हर पीढ़ी की दुर्दशा हुई है और साथ ही साथ पर्यावरण की भी – उसके बारे में जानना तो दूर की बात है। सिंगरौली पर अविनाश चंचल की एक किताब भी है अगर कोई उसे पढ़ना चाहे तो और उसी पर आधारित एक बहुत सुंदर नाटक भी है जिसको पढ़ने का मौका मुझे मिला था। जितनी बार भी जिस भी तरह से मैं सिंगरौली और उसके लोगों के जीवन के बारे में पढ़ती हूँ तो विकास के नाम पर विनाश के ऐसे जाल में या और अच्छे से कहूँ तो लूप में फँसे हुए लोगों का doomed जीवन दिखाई देता है जिनकी वजह से आधुनिक भारत आज इतनी तरक्की कर रहा है लेकिन वो सब हर रोज़ कोयले की धूल में दो वक़्त के रोटी-पानी के लिए भी दिन रात लड़ रहे हैं। यह सोचकर ही भीतर एक लाचारी और घना दुःख छा जाता है कि हम सब कहीं न कहीं इसके ज़िम्मेदार रहे हैं और अब जो भयंकर विनाश हो चुका है उसे रोकने या बदलने में असमर्थ हैं।

उनका दूसरा लेख “सुलगती टहनी” जो उन्होंने अपनी एकल कुंभ यात्रा के बारे में लिखा था, उसे पढ़कर आत्मा को कोने कोने तक भिगोने वाला अलौकिक सा अनुभव हुआ। शायद ही किसी लेखक के ज़रिए मैंने अपने को ईश्वर के और ईश्वर को मेरे इतना करीब महसूस करा है – एक ऐसा ईश्वर जो शायद है ही नहीं। (लेकिन अगर होता तो उसे ठीक बिल्कुल ऐसा ही होना चाहिए था!)

निर्मल वर्मा भीतर से खुद को पूरी तरह खाली करके कुंभ गए थे और शायद इसी खाली होने की वजह से उनकी आत्मा इतनी गीली थी इस पूरी यात्रा के दौरान। उनका हर एक शब्द गंगा की तरह निरन्तर बहती पवित्रता में भीगा हुआ, टप-टप कर जीवन के ऐसे अर्थ पन्ने पर उँढ़ेलता रहता जिन्हें शायद समझने और अनुभव करने के लिए एक पूरा जीवन लग जाए और तब भी कुछ ना कुछ छूटता ही मालूम पड़े। वो कुंभ गए.. एक बार भी गंगा में डुबकी नहीं लगाई लेकिन उनकी समूची आत्मा हर क्षण उसमें लगातार भीगती रही थी। असल तीर्थ यही तो है– ऐसा ही तो होना चाहिए जहाँ आप हर चीज़ से निस्संग हो (ईश्वर से मिलने, मोक्ष पाने और अपने पाप धोने की लालसा से भी) लेकिन ठीक उस पूरे के मध्य में आपकी आत्मा लगातार गहरे गोते खा रही हो, अपने आप को पूरी तरह भीगा चुकी हो। वो एक जगह लिखते हैं –

“शायद मदद की सीमा से बाहर ही ईश्वर की सीमा है, लेकिन वह उतना ही निस्सहाय है जितना तुम। दोनों ही एक-दूसरे के सामने अकेले हैं – ईश्वर को निस्सहाय पाकर भी उसमें विश्वास करना – क्या कृष्ण का यही मतलब था?”

-निर्मल वर्मा | धुँध से उठती धुन

कुंभ के मेले में निर्मल वर्मा पूरी भीड़ में एक अदृश्य प्रेत की छाया जैसे निरंतर भटकते हुए – चुप और निस्संग स्वयं को किसी खाली बर्तन की तरह टटोलते हुए – एक रिपोर्टर की भाँति अनजान मुस्कुराते चेहरों के भेस में हाथ आते आते छूट चुके विराट चमत्कारों की रिपोर्ट दर्ज करते हुए रिल्के के उस दूत की तरह थे जो ईश्वर की खबर मनुष्य को और धरती का सौंदर्य कहीं दूर ईश्वर को देता रहता है। (इसका ज़िक्र उन्होंने खुद किया था)

उनको पढ़ते हुए लगता है मानो वो बहुत शांती से अपनी डेस्क पर बैठे हों (किसी बूढ़े तपस्वी से), उनके हाथ में एक मोतियों की माला हो जिसमें हर मोती का अपना अपना एक अस्तित्व है, उसकी अपनी जगह है – किसी एक बिना भी माला का जुड़ा रहना असंभव है। और फ़िर वो धीमे से माला के चुप को भेदते हुए उसे तोड़ते हैं और हल्के से सारे मोतियों को कागज़ पर एक तरतीब से रख देते हैं। उनका हर एक शब्द उस माला का मोती है – अपने आप में पूरी तरह सम्पूर्ण! उनके वाक्य किसी सरसराती हुई नदी की तरह बहते हैं कागज़ पर.. पाठक को अपने भीतर लोपते हुए। एक सुंदर संगम होता है – भाषा, चिंतन और आत्मा का। एक भी शब्द अपनी जगह पर अनावश्यक नहीं लगता। और सबसे अच्छी बात.. ऐसे ऐसे शब्द पढ़ने को मिलते हैं जो हमेशा से कहीं आस पास ही पड़े थे लेकिन जिनके होने को हमने शायद स्वीकारना सीखा ही नहीं था। पर जैसे ही उन्हें हम निर्मल वर्मा के लिखे में पढ़ते हैं तो अचानक उन शब्दों को हम स्वीकार लेते हैं – उनका होना, उनका अस्तित्व अचानक से एकदम सहज लगने लगता है और वो हमारे निजी शब्दकोष में अपना स्थान पा लेते हैं। उनके लिखे में एक तरह की निरंतर शुद्धता बहती है, किसी प्राचीन नदी के शीतल निर्मल पानी सी। उन्हें पढ़ना भीतर की ना जाने कौन सी मीठी प्यास को लगातार बुझाता बढ़ाता रहता है जिसके होने का एहसास निर्मल वर्मा को पढ़ने से पहले हमें खुद को नहीं था। इसपर निर्मल वर्मा का इसी किताब में कहा एक कथन याद आता है –

“साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ़ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है। जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो, तो जागने पर सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे थे।

-निर्मल वर्मा | धुँध से उठती धुन

इतने दिनों से ऐसा लग रहा था कि मेरे भीतर किसी झिलमिलाते अँधेरे कमरे में एक बूढ़ा आदमी रह रहा है जो जीवन के धार प्रवाह में बहते हुए भी उससे निस्संग है, जो लगातार बूढ़ा हो रहा है और यह बात वो जानता है। उस आदमी के भीतर भी ठीक ऐसा ही एक झिलमिलाता हुआ अँधेरा कमरा है इसलिए वो मेरे भीतर वाले कमरे में होते हुए भी (किताब के रूप में) असल में उस कमरे में रहता है जो उसके भीतर है। भीतर के भीतर में एक खिड़की है जिसके आगे बैठकर वो बस रोज़ किसी नियम सा अपनी डायरी में सब कुछ लिखता चलता है। वो सब कुछ भीतर की इसी खिड़की से देखता है। उसकी जगह जगह करी यात्राओं को पढ़कर भी यही लगता है मानो सारा बाहर उसने इसी एक कमरे में रहकर देखा.. और लिखा हो.. और शायद असल में उसकी सारी यात्राएँ भी हमेशा इस कमरे का ही हिस्सा रही हों। वो बस यहाँ अकेला बैठा लगातार अपनी मृत्यु की तरफ देखने की कोशिश करता है, एक अजीब सी रुकी हुई धुँध के परे। लेकिन जब वो लिखता है तो वो अपने लिखे में उस धुन को पकड़ने की कोशिश करता है जो मृत्यु की तरफ से जीवन को देखने पर सुनाई देती है।

“लेकिन जब मैं अपने से पूछता हूँ, कि इतनी लंबी ज़िंदगी ने मुझे क्या सिखाया ― तो लगता है, कि मैंने अपना जीवन अभी शुरू ही नहीं किया… मैं उन लोगों में हूँ, जो मृत्यु के क्षण तक अपने जन्म की प्रतीक्षा करते रहते हैं।

-निर्मल वर्मा | धुँध से उठती धुन

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