साथी,
कुछ दिनों पहले ‘बधाई दो’ देखी। जब ट्रेलर देखा था तो तुमसे कहा था कि यह सब एक जैसा ही क्यूँ बन रहा है.. यह अच्छी भी होगी या नहीं? लेकिन अच्छा लग रहा है कि मैं गलत निकली। देखने का बाद लगा यार कब से ऐसा ही कुछ देखने की ज़रूरत थी। साँस एकदम से हल्की हुई। चेहरे पर मुस्कान थी। बहुत देर तक। पिछली आई सारी फिल्मों को देखकर लगने लगा था जैसे lgbtq लोगों का जीवन भी बस एक गेंद सा बन कर रह गया है, ऊपर ऊपर से बात करके उनके नाम पर फ़िल्म चलानी है बस। एक अच्छा सा फैमिली ड्रामा परोसना है। लेकिन इसे देखने के बाद लगा कि असल मायनों में तो यह हिंदी मेनस्ट्रीम सिनेमा की पहली lgbtq फ़िल्म है। क्यूँकि यह पहली थी जो सच में उनके के जीवन के बारे में थी। उनकी इच्छाओं, उनकी लड़ाइयों और उनके समझौतों को थोड़ा करीब से देख पाने का एक मौका। उनकी नज़र से।
फ़िल्म में दो पात्र है। सुमन जो कि एक पीटी टीचर है और शार्दुल जो एक पुलिसवाला है। दोनों समलैंगिक हैं। और एक दूसरे से इस बात पर शादी कर लेते हैं कि रूममेट्स की तरह रहेंगे। अच्छा लगा देखकर की फ़िल्म ज़्यादा इस बारे में थी कि कैसे सुमी और शार्दुल हमारे समाज के (जो पितृसत्तात्मक और heteronormative है) बनाये शादी के ढाँचे में एक समझौते के साथ उतरकर अपना जीवन अपने ढँग से जीने की कोशिश करते हैं। क्यूँकि अधिकतर lgbtq लोगों का जीवन ऐसे ही समझौतों में गुज़रा होता है या फ़िर गुज़र रहा होता है। इस समझौते की अपनी अलग टीसें और अपने अपने अकेलेपन के अलग घेरे होते हैं जिससे हर पात्र अपने को झूझता हुआ पाता है। जहाँ इतने सारे भाव एक साथ मिलकर अलग ही dynamics बनाते हैं पात्रों के बीच। जैसे शादी के बाद जब शार्दुल अपने पार्टनर के साथ होता है तो सुमन की अकेले छूट जाने की टीस भीतर महसूस होती है। दो के बीच तीसरा होने का एहसास जो हम सबने जिया है। या फ़िर जब सुमन की पार्टनर रिमझिम चाहकर भी सुमन पर अपना उतना हक नहीं जमा सकती सबके सामने जितना शार्दुल उसका ‘पति’ होने के नाते उसपर जमा सकता है.. तब उसके हाथ कितने खाली और अकेले महसूस होते हैं!
यह फ़िल्म इतनी सुंदर लिखी गयी है कि इसके लेखकों के हाथ चूमने का मन करता है बार बार। फ़िल्म की जो बात सबसे सबसे सबसे ज़्यादा अच्छी लगी वो थी जेंडर रोल्स को लेके इसकी बारीक समझ और एक रियलिस्टिक नज़रिया। सुमन और शार्दुल समलैंगिक होने के बावजूद भी जिन जेंडर रोल्स को निभाते हुए बचपन से बड़े हुए हैं वो समाज तो उनपर थोपता ही थोपता है लेकिन साथ में वो दोनों खुद भी उनसे अछूते नहीं रहते। खासकर शार्दुल। एक जगह सुमन शार्दुल से कहती है कि ‘तुम गे होकर भी इतने इंसेंसिटिव कैसे हो सकते हो?’ इसपर शार्दुल कहता है कि ‘अरे गे हूँ तो क्या हुआ अपने संस्कार थोड़ी न छोड़ दूँगा।’ लेकिन इससे शार्दुल के प्रति नफरत नहीं पैदा होती मन में बल्कि समझ आता है कि वो इसी समाज में पला बड़ा है और जैसे गे होना उसके जीवन का बस एक हिस्सा है वैसे ही कुछ मामलों में पितृसत्तात्मक सोच होना भी उसका ही एक हिस्सा है।
और दूसरी बात जो इस फ़िल्म की एप्रोच में नई थी वो यह कि इसमें कहीं से भी यह दिखाने का प्रयत्न नहीं किया गया है कि शार्दुल और सुमन बहुत मेहनत करते हैं अपने घरवालों को समझाने की, उनकी नाराज़गी दूर करने की या उनके हिसाब से ढ़लने की। एक जगह सुमन रिमझिम से कहती है कि ‘कोई नहीं समझता यार और किसी को जबरदस्ती समझाना भी क्यूँ हैं, यह हिस्सा है हमारे जीवन का पूरा जीवन थोड़े ही है।’ और फ़िल्म ना ही यह दिखाती है की उनके घर वाले उन्हें पूरी तरह से समझ लेते हैं या उनकी नाराज़गी बिल्कुल दूर हो जाती है और अंत में सब सही हो जाता है। शार्दुल और सुमन बस कह देते हैं कि देखो यह है, हम ऐसे हैं और अब आपको स्वीकार करना है। उनके माँ बाप अपने पूरे हक से उन्हें खरी खोटी सुनाते हैं, नाराज़ होते हैं और वो सुन भी लेते हैं। और ना ही फ़िल्म यह दिखाती है कि हर पात्र अपनी आइडेंटिटी को लेके पूरी तरह से सहज है और बिना झिझके सबके सामने उसे स्वीकार चुका है। फ़िल्म के अंत तक भी शार्दुल में झिझक देखी जा सकती है जो धीमे धीमे अपने समय के साथ ही पिघलेगी। वो उसका अपने आप से रिश्ता है बाकी सब की तरह जिसकी गाँठे खुद उसे ही सुलझानी है।
तुम्हें प्रेम हो जाएगा साथी जब तुम देखोगे की कितनी सुंदर नज़र से शार्दुल और सुमन के अपने पार्टनर्स के साथ बिताए समय को फिल्माया गया है। जैसे पहली बार हम उनकी कहानी उनकी नज़र से देख रहे हों। नॉर्मल ह्यूमन रिलेशन्स की तरह! एक सहजता अपने होने के घेरे में जिसमें प्यार की शुरुआती गुदगुदी से लेकर लड़ाई, चिढ़न, चिल्लाना, छोड़ दिये जाना और फिर किसी नए से मिल जाने की खुशी तक सब कुछ है। जैसे हम एक अपनी छोटी सी दुनिया बना लेते हैं ना जिसमें दूसरों की जगह नहीं वैसे ही इनकी दुनिया है लेकिन समाज अपने कानूनों, अपने गुस्से, अपनी नज़रों और अपनी बंदिशों के साथ इनके अगल बगल बना रहता है।
समय समय पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है। पर यह रंग बिरंगे नाचते गाते लोग आकर उससे कहते हैं कि आजा तू भी नाच ले। हम रँग हैं।
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“मुझे शब्द बहुत पसंद हैं।” –
Bio माँगा तो कहा कि बस इतना ही लिख दो। छोटा, सटीक और सरल। Instagram bio में खुद को किताबी कीड़ा बताती हैं और वहाँ पर किताबों के बारे मे लिखती हैं। इनको आप Medium पर भी पढ़ सकते हैं।
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