सखी, अचल मिश्रा की dhuin देखी। पहला शब्द। पहला visual और कुछ देर बाद मुझे लगा ये तो मैं हूँ। मैंने पंकज की चुप्पी में खुदके बहुत से हिस्से देखे। बहुत निजी हिस्से। उसके संवाद से ज्यादा उसकी चुप्पी मे मुझे मैं दिखा। और तो और मेरे आस पास के बहुत से लोग दिखे।
पता, दरभंगा इतना सुंदर होगा ये नहीं सोचा था। पर ठीक उस सुंदरता के बीच एक जीवन घटता है। उस जीवन के सपने है। हर जीवन की तरह। मेरे जीवन की तरह। उन सपनों में aeroplane हैं जिन्हें पेड़ के ऊपर चढ़कर हर कोई देखता है। पर ठीक plane के गुजरने के साथ नीचे भैंस आती हैं। एक आदमी है जो भैंस की सवारी कर रहा होता है और वो भी ऊपर देखता है। plane की सवारी का सपना।
Lockdown ने कितनों की नौकरी ली है की खबर के साथ उसी सपने के आस पास के बहुत कसे और बंधे हुए घर में कुछ लोग दिखते हैं। एक बाप है। एक माँ है और एक बेटा है। बेटा अपने पिता के पास बिलकुल नहीं दिखता। घर बहुत छोटा है। बेटे का बाहर का संसार बहुत सी खाली जगह से भरा हुआ है। उस खाली जगह में बहुत से सपने हैं। बड़े सपने। शायद उस खाली जगह से भी बड़े। कह सकते हैं उसके सपने उस खाली जगह के बाहर तक जाते हैं। ऐसा लगता है अभी उसके सपनों की वजह से frame खींच कर आसमान जितना हो जाएगा। लेकिन घर। घर बहुत छोटा है। बिलकुल बंधा हुआ। जैसे कि सबके घर होते हैं। मेरे घर जैसे। फिर चुप्पी है। अनकही। उसी चुप्पी में मुझे मेरा घर, मेरा पड़ोस, मेरे सपने और मेरे आस पास के सब दिखे। मुझे लगा मैं छू पा रहा हूँ उन सबको। पर डर है कि ये सब मुझे छलनी कर देगा।
फिर बहुत देर तक पंकज चलता रहता है। ऐसा लगता है सब उसके भीतर से गुज़र रहा है। एक खेल का मैदान है जिसकी सलाखें उसके शरीर के आर पार जाती हैं। वो जब भागता है मैं उसके साथ भागता हूँ। मेरी सासें तेज होती हैं। फिर वही पंकज field में बैठकर अपने सपनों को साकार करने वाले कुछ लोगों से मिलता है। पर उन लोगों की भाषा… ये कौनसी दुनिया है? मैं पंकज और उसके आस पास की दुनिया के हर हिस्से को खुद जी रहा था। या जी रहा हूँ। पता वो जब फिल्मों की बातें करते हैं और पंकज अवाक सा उन्हें देखता है कि ये कौनसी बातें कर रहे हैं तो लगता है कि मैं दोनों जी रहा हूँ। मैंने भी ऐसी बातें की हैं और मैंने भी ऐसे मूक होकर सब सुना है। साथ में खुद के लिए हीनता। क्या है वो हीनता? धुंध इतनी बढ़ती है कि पंकज को लील लेती है।
पंकज बहुत देर तक धुंध में चलता रहता है। मुझे सिर्फ उसकी चाल दिखती है। सपनों से भरी। पर उसमें शुरू जैसी तेजी नहीं है। एक सोच है। उथल पुथल है। और धुंध है। जो लील लेती है। सब स्याह हो जाता है। पंकज एक पल को उसमें खो सा जाता है। मेरी सांस अटक जाती है कि film यहीं खत्म हो गयी तो मैं… मैं कैसे इस सच को स्वीकारूंगा। लेकिन फिर सामने से रोशनी के दो बुलबुले उठते हैं और… लेकिन… कैसे कहूँ वो सपने से बहुत अलग हैं। ये असल है। और फिर सब बदल जाता है।
पंकज शुरू में बहुत जल्दी जाने के सपने देखता है। लेकिन फिर कहता है कि जब यहाँ सब ठीक हो जाएगा तब जाएगा। सब ठीक की क्या परिभाषा है? क्या अचल मिश्रा मेरे साथ सिर्फ ये सवाल छोड़ कर जा रहे हैं कि सब ठीक कब होता है? क्या सही है, क्या गलत है से परे सिर्फ धुंध है पास में… उसमें अपना रास्ता बनाते हुए मैं कब पंकज और उसके आस पड़ोस सबका जीवन जीने लगा पता ही नहीं चला। दूर उसके अपने पिता को ले जाने के दृश्य कुछ बेहद अपना है पर साथ में कुछ बेहद नीरस है। नीरस भी नहीं… शायद एक धूमिल सी आशा है… धुंध से घिरी… मैं बहुत देर तक पंकज से बात करने की कोशिश करता रहता हूँ पर हाथ में सिर्फ चुप्पी आती है और पंकज की मौन आँखें। अकेले में की गयी कोशिशें। उसके चेहरे के प्रश्न और आशा। और फिर ढेर सारी धुंध।
ये फिल्म देखना।
Achal Mishra’s Dhuin was showcased in Jio MAMI Mumbai Film Festival
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बिखेरने की आज़ादी और समेटने का सुख – लिखने की इससे बेहतर परिभाषा की खोज में निकला एक व्यक्ति। अभिनय से थककर शब्दों के बीच सोने के लिए अलसाया आदमी।
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