सखी, मैंने देवाशीष मखीजा (Bhonsle और Cheepatakadumpa के director) की फ़िल्म देखी- “Cycle”। लगभग बीस मिनट की फ़िल्म है। जिसमें तीन वीडियो फुटेज हैं। यह एक चक्र के बारे में है। हिंसा का चक्र। जिसके हम सब साक्षी हैं। हम सबका हाथ है जो इस चक्र को चलाये रखता है अनवरत।
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मैं फिल्म देख रहा था। 17 मिनट के आस पास मेरी माँ सामने से पूछती हैं ‘लल्ला, पलके क्यूँ नहीं झपका रहे?’ मुझे तब पता चला मेरी पलके तनी हुई थीं। पूछती हैं ‘गुस्सा हो?’ मेरे दाएं हाथ की मुट्ठी बंधी थी। सासें तेज होंगी। पता नहीं। अभी हैं। आँसू नहीं हैं। कुछ सूख गया है भीतर। अथाह रेगिस्तान में जो हालत होती होगी ना, उससे भी बदतर। जैसे सारा कुछ राख हो गया हो। ये क्या है??!
ये फिल्म देखना। कचोट देगी। मैं ये लिखते हुए बस अपनी साँसें गिन रहा हूँ। एक। दो। तीन। मैंने जैकेट पहन रखी है, पर ठंड कहीं बहुत भीतर है जबकि लग सब रेगिस्तान सा रहा है। गहरी साँस।
एक चक्र है। साइकिल कौन चला रहा है? बचपन में खेल खेला है जिसमें डंडी से पहिया चलाते थे। पहिया बहुत सी चींटियों के ऊपर से गुज़रता था। मर जाती होंगी। आज उन चींटियों के लिए बहुत दुख हो रहा है। लग रहा है वो पहिया अभी भी मेरे हाथ में है। मैं रोक नहीं सकता इसे अब। इस पहिए के नीचे अब बहुत लोग आ रहे हैं। मेरा अभी साँस लेना भी इस पहिए को चला रहा है। और सबसे घिनौना ये है कि मेरी साँस रुक भी जाए तो भी ये पहिया चलता रहेगा।
सही नाम रखा है देवाशीष ने – साइकिल। चक्र। पहिया।
पहला आँसू। ठंडा। हमेशा आँसू गरम निकले हैं। ये ठंडे हैं। मैं कांप रहा हूँ। और डर ये है कि अभी कोई ताप मुझे आराम नहीं दे सकता। हिंसा कहाँ घटती है? किसी को मारने में? किसी के अधिकार छीनने में? नहीं, हिंसा घटती है बीच में। जिसे तुम देख सकते हो, छू सकते हो, उसका दवाब तुम्हारा दम घोंट देता है और तुम उससे बचने के लिए कुछ नहीं कर सकते। जैसे किसी ने तुम्हारा गला दबा रखा हो, हाथ पैर पकड़ रखे हो और वो तुम्हारा सबसे निजी मनुष्य होने अधिकार छीन रहा हो तुमसे। और तुम उसके बाद बार बार वो अधिकार छिनना महसूस करो। हर बार। हर जगह। वही हाथों का दबाव। एक चक्र।
पहली फुटेज आती है। कोई फोन से सब रिकॉर्ड कर रहा है। मुझे इन दिनों सोशल मीडिया पर वायरल होते हिंसा के वीडिओज़ याद आ जाते हैं। गहरी शर्म। करिया को ढूंढा जा रहा है। करिया कौन है? Footage के अंत में क्या बचता है? चीख? नहीं। बस मूक आँखें। हिंसा से तार तार। चीखती हुईं। पर कोई आवाज़ नहीं सुनाई देती । एक आदमी कहता है ड्रम ज़ोर से बजाओ ताकि इनकी चीख बाहर किसी तक ना पहुँचे। ड्रम बजता है। आग जला रखी है। यह कोई उत्सव भी तो हो सकता था सखी! आदिवासियों का कोई त्योंहार। जिसमें वो नाचते गाते खुश होते। हम – जो इनके होने से हैं – कितना कम जानते हैं इनके बारे में। अगर देवाशीष की यह फ़िल्म ना होती तो हम कभी ना जान पाते कि दूर से देखने पर जो कोई उत्सव की तैयारी सा लग रहा है, हमने अपनी हिंसा के लिए जगह उसी के भीतर चुनी है। हम ठीक उनकी संस्कृति, उनके घर के मध्य में उन्हें रौंद रहे हैं। यह कितना क्रूर है। हमने हर रूप से उनपे और उनके जीवन पर हिंसा करी है।
दूसरी फुटेज आती है। चींटी का स्वाद लेकर एक आदमी हँसता है। एक लड़की है जो आदिवासी क्रांतिकारीयों पर डॉक्यूमेंट्री बना रही है। वो पूछती है कि इन चीटियों ने तुम्हें कभी काटा नहीं। वो आदमी कहता है प्यार से छुओगे तो काटेगी नहीं। और वो उसे आग पर तपा देते हैं। हम चींटी को प्यार से छूते हैं ताकि उसे मारकर उसकी चटनी बना सकें। क्यूँकि खाने का चक्र पूरा करना है। चींटी हमें नहीं काटती क्यूँकि उसे हम पे भरोसा होता है। लेकिन जब चींटी का भरोसा टूटता है और वो पलटकर हमें काटने लगती है, वो मारी जाती है। दोनों स्तिथियों में चींटी का मरना तय है। बस दूसरी में हम यह कहकर अपनी हिंसा की सफ़ाई दे सकते हैं कि वो हमें काट रही थी इसलिए हमने उसे मारा। हम यह बताना भूल जाते हैं कि उसे काटने पर हमने ही मजबूर किया था। आदिवासी लोग किसके लिए चींटी हैं? कौन किसे खा रहा है? ये चक्र कौनसा है? कौन चला रहा है? क्यूँ चला रहे हैं? बहुत सारे सवाल।
करिया गाना गाती है। उसकी भाषा का प्रेम गीत। अपने प्रेमी से मिलन की इच्छा का गीत। आशा और इंतज़ार का गीत। भीतर कुछ टूटता है उसे सुनकर। सखी, इससे बड़ी हिंसा क्या है कि एक लड़की है जो प्रेम गीत गाती है क्यूँकि उसे उसके पुरखों से प्रेम मिला है विरासत में लेकिन उसके हाथों में बंदूक है जो इस चक्र ने दी है। चक्र कहकर क्यूँ बचा रहा हूँ खुद को। हमने दी है। एक लड़की है जो नदी किनारे बैठी बाल काट रही है। कैमरा उसके पास जाता है। बालों के बीच दिखती हैं सबसे पहले उसकी आँखें। वो आँखें तुम्हारे भीतर का सारा हरा पीला तपता कर देंगी सखी। उसका चेहरा बदल चुका है। उसने अपनी संस्कृति की सुंदरता त्याग दी है। उसके हाथ में भी एक बंदूक है।
तीसरी फुटेज। कोई बंदूक की नली ठीक तुम्हारे सामने रखता है। तुम्हें डर है कि ये बंदूक तुम पर तनी है। एक बार को मन करता है कि मार दे तुम्हें ये। पर बंदूक की नली घूम जाती है। कोई टूटता है तुम्हारे सामने। और फिर घटती है हिंसा आत्मा कचोटने वाली- जब वो कहती है कि देखो ये क्या बना दिया है तुमने मुझे??!
ये क्या बना रहे हैं हम?? जिम्मेदार कौन है? पता, एक अंतर है हमारी और उनकी दुनिया में। ‘उनकी’.. हंसी आ रही है। घृणा वाली। हम आदिवासी या नक्सल कह कर पीछा छुड़ा सकते हैं। लेबल ही तो हैं। पर आज नहीं। इसलिए शायद ‘उनकी दुनिया’ कह रहा हूँ। और कोई शब्द अभी मिला नहीं। आदिवासी या नक्सल हम इस तरह कहते हैं मानो वो लोग मनुष्य नहीं हैं। हमसे अलग हैं। मनुष्य तो हम हैं। वो आदिवासी हैं। नक्सल हैं। शायद इसीलिए देवाशीष जब हमारी दुनिया की शक्ल दिखाते हैं तो कैमरा पलट जाता है। हम उलटे दिखते हैं। आसमान से लटके। हमारी दुनिया और उनकी दुनिया में ज़मीन आसमान का अंतर है – यह कहावत सच होती दिखाई देती है। हमारे पैर कितने दूर है ज़मीन से! हम कभी ज़मीन पर पैर रख पाएँगे?? पाट पाएँगे इस बीच के अंतर को? हिम्मत है हममें?
कैसे तय करें कि गलती किसकी है? एक आदमी अपने अफ़सर के ओहदे के दबाव में एक घिनौना काम करता है, उसकी आँखें बोलती हैं कि वो यह करना नहीं चाहता। उसे मारा जाता है। वो कर देता है। उसका पाप क्या है?
हम सब भागीदार हैं सखी। हम तीलियाँ हैं एक ऐसे चक्र की जो सब जलाता जा रहा है। लेकिन सबसे घिनौना ये है कि हम अपने तीली होने को पहचान लेंगे और फिर हट भी जाएँगे तब भी यह पहिया चलता रहेगा। ये चक्र अनवरत है और ये दिखाकर देवाशीष ने जो घुटन दी है वो..
इस फिल्म के बाद मैं देवाशीष का शुक्रिया नहीं कहूँगा कि उन्होंने ये फ़िल्म बनाई। मैं बस उनके गले लगकर माफ़ी मांगूंगा कि उन्हें ये फिल्म बनाने की ज़रूरत पड़ी। और जिस ढंग से बनाई है, उसके लिए नमन और शुक्रिया दोनों। शब्द नहीं है। बस चुप्पी है और एक गहरी शर्म है कि इन सब लोगों को ये फिल्म बनानी पड़ी। ये हमारी हार है कि ये फिल्म बनी है। Filmmaking असल जीवन से निकली है तो ये इस craft के इतने सुंदर होने की हार है कि असल जीवन में ये घट रहा है। मैं बस माफी मांगूंगा देवाशीष और फिल्म के भीतर जिन्होंने भी काम किया है उन सबसे कि हम सब इसके भागीदार हैं। शुक्रिया नहीं, पर हाँ… ये फिल्म… ज़रूरी है। उसके लिए भी शर्म।
ये फिल्म देखना। समझ नहीं आ रहा कैसे कहूँ – पर देखना। और आस पास के लोगों को दिखाना।
Letter Written By Arun Kumar Singh & Harshita Pandey
Cycle 19 November 2021 ko Hummingbird International Film Festival में release होने वाली है। – Hummingbird Film Festival,
Selected Film List at Hummingbird Film Festival
Then, 4 December 2021 को 13th International Documentary and Short Film Festival of Kerala (IDSFFK) में release होने वाली है। – IDSFFK
Film और Team के बारे में और जानना है तो फिर यहाँ click करिए – Cycle Film Website
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देवशीष मखीजा की short-film Cheepatakadumpa ने अभी हाल ही में DIFF 2021 में Best Film on Gender Sensitivity का अवार्ड भी जीता है। उस पर लिखे article को पढ़ने के लिए – Cheepatakadumpa : फटी आँखें और एक खेल | Devashish Makhija
Also Read- Cheepatakadumpa : फटी आँखें और एक खेल | Devashish Makhija
Bhonsle | This film is about us
Stills From Cycle | All Pics Courtesy: Makhijafilm 2021
समानांतर दूरी पर पास पास बैठे हुए दो बिंबों के बीच की जगह के बारे में क्या कुछ भी ठीक से कहा जा सकता है? उस बीच की जगह को किन पैमानों पर नापा जा सकता है? दूरी के या नज़दीकी के? क्या वो बीच की जगह परिधि है? परिधि.. जीवन की? परिधि पर बैठे पँछी जीवन को किस नज़र से देखते होंगे? क्या परिधि ही वो जगह है जहाँ सारे नज़रिए एक साथ आ जाते हैं.. जहाँ सच और झूठ के पत्थर अपना रँग खो देते हैं? क्या परिधि पर सब कुछ सम्भव है और कुछ भी नहीं? और अंत में.. यह सारे सँवाद.. क्या यह परिधि पर हमेशा से ही पड़े थे और इन्हें बस उन दो पंछियो ने अपनी चोंच से चुग लिया था? क्या परिधि ही सँवाद है?
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