– सुनो.. तुम इंतज़ार के बारे में क्या सोचते हो? क्या तुमने देखा है कभी इंतज़ार?
– पता नहीं। लेकिन मैंने इंतज़ार में लोगों को देखा है। क्या इंतज़ार कर रहे लोगों को देखना इंतज़ार को देखना नहीं हुआ?
– नई किताब पढ़ी है, चलो उसपे बतियाते हैं। बहुत कुछ नया है!
– “धुँध से उठती धुन” ना?
– हाँ।
– निर्मल वर्मा यह जो कह रहे.. क्या यह एक तरह का इंतज़ार है? जाने क्यूँ यह मेरे हाथ से छूट जाता है हर बार।
– हाँ, शायद। यह ठीक वैसा है जैसा काफ्का इंतज़ार के बारे में बात करते हुए कहते हैं – “मुझे मृत्यु का सन्नाटा चाहिए। उसमें शब्दों और कहानियों का इंतज़ार करते हुए बैठा रहता हूँ कि कब वो भीतर से आएँगी।” और इसी इंतज़ार के साथ तो वो जीवन भर जीते रहे।
– लौटने की प्रतीक्षा? कहाँ? एकांत में? या उस शून्य में जहाँ हम सिर्फ शब्द का इंतज़ार कर सकें? उस बिन्दु की प्रतीक्षा जहाँ स्मृति कहानी में बदलती है। जहाँ स्मृतियाँ हमारी ऊँगलियों पर नाच सके और उनके नृत्य से हम कहानी लिख सकें।
– प्रतीक्षा करना यानि कहानी या जो भी लिखते हो उसकी प्रतीक्षा करना और जब वो आए तो उसे लिख देना.. शायद यही लौटना है जिस बारे में निर्मल बात कर रहे थे। लेकिन कहाँ लौटना? वहाँ जहाँ हमें… ‘घर’ शब्द अपने में बड़ा सीमित है वो बताने के लिए कि कहाँ लौटने के प्रयास में लिखते हैं… इसीलिए लिखना एक सक्रिय उम्मीद है शायद।
(दोनों बहुत उम्मीद से दूर हरे में देखते हैं। उन्हें पता है इस वक़्त वो लिखे जा रहे हैं। एक उम्मीद की तरह।)
– हम पात्र हैं ना?
– हाँ।
– अगर लिखने वाले हमसे – अपने पात्रों से – सहानुभूति रखने लगेंगे तो क्या होगा?
– तब वो हमें हमेशा सही और गलत के तराजू पर तौलेंगे, हमारे फैसलों को भी और फिर वो हमें वो सब करने से रोकेंगे जो हम करना चाहते हैं – क्यूंकि तब उनकी नज़र से कुछ चीजें बुरी होंगी, बेवकूफी भरी होंगी। वो हमें अपनी गलतियाँ नहीं करने देंगे। जैसे मानव कौल की ‘अंतिमा’ में – हम रोहित को वर्मा मैडम और दुष्यंत के प्रति किये गए बहुत सारे काम नहीं करने देंगे, और जो कहानी में लेखक करता भी है – पर अंत में पात्र खुद उसके हाथ से अपनी कहानी की बागडोर ले लेते हैं और अपना जीवन जीते हैं।
– तो ये जुड़ाव.. पात्रों को उनकी कहानी से बचा लेने की इच्छा.. क्या हर लेखक अपने पात्रों को कहानी से बचाने की कोशिश करता है कहीं ना कहीं?
– मालूम नहीं। शायद हाँ। मुझे लगता है कि हमें सब पात्रों को उनका जीवन जीने के लिए छोड़ देना चाहिए। कितना अजीब है ना यह कि जो हम सब असल जीवन में अपने लिए माँगते हैं..वही स्वतंत्रता जब अपनी कहानी में खुद भगवान की भूमिका निभाने लगते हैं – जो कि बिल्कुल जरूरी नहीं है – तो अपने पात्रों को देना भूल जाते हैं। कहानी उन्हें वही समझाती है।
पर हाँ, साथ में उन्हें(लिखने वाले को) कोई धागा तो अपने हाथ में भी रखना होगा जिससे हम उन्हें खो ना दें और कहानी में वो हमें! क्यूंकि कहानी उनके ज़रिए भी उतनी ही कही जा रही है जितनी हमारे ज़रिए।
– परिधि! कितना छोड़ना है और कितना पकड़ के रखना है के हिसाब की परिधि।
(वो थोड़ी देर कुछ सोचता है। मानो अपनी कही बात की ही किसी भीतरी परत को पकड़ रहा हो।)
– पर शायद लेखक पात्रों को अपने आप से बचाना चाहता है। बात कहानी से बचाने की उतनी नहीं जितनी अपने आप से बचाने की है! क्यूंकि पात्रों के जरिए वो खुद वो सब कर रहा होता है जो वो कर रहे हैं और कौन अपने आप को गंदे शीशे में देखना चाहेगा? मतलब अंत में हो तो आप इंसान ही.. जो चीजें आप अपने असल जीवन में नहीं जी पाते, उन्हें पात्रों के ज़रिए जीने की कोशिश करोगे। पर अगर आपने सहानुभूति दिखाई तो क्या उन्हें वो करने दे पाओगे?
– पर सहानुभूति से पात्र खुश हो जाएँगे।
– पर क्या वो कहानी के लिए ठीक होगा?
(वो अगला पन्ना पलटते हैं। उनकी नज़र ऑस्कर वाइल्ड के कथन पर पड़ती है।)
– गीत चतुर्वेदी का कॉन्ट्रेडिक्शन?? पूरी आर्ट का कॉन्ट्रेडिक्शन???
– सत्य तक पहुँचने के अनेक रास्ते हैं। (पढ़ के हँसता है ।)
– (मुस्कुराती है) संदेह! अंत में सिर्फ कॉन्ट्रेडिक्शन रह जाता है!
अगला पन्ना..
– सुनो, इस बात से अभी जुड़ाव नहीं है मेरे भीतर। अगर जीवन solitary existence है तो हो सकता है, पर मेरे हिसाब से वो connected existence है। तो उसका एक aspect खत्म हो सकता है लेकिन वो किसी और चीज में evolve हो जाएगा।
और ये फिर खुद को ही कॉन्ट्रेडिक्ट कर रहे हैं यह कहकर कि बिंदुओं के पीछे जो भी बचता है वो अपूर्ण रहता है। फिर सम्पूर्ण क्या है? बिन्दु तो वो है जहाँ हमने उंगली रख दी। पर असल में रेखा तो बिन्दु का विस्तार है। फिर ये तो हमारा पॉइंट ऑफ व्यू हुआ कि हमने एक हिस्से को देखकर कह दिया, ये बिन्दु है और ये रेखा। रेखा तो बहुत दूर से देखोगे तो वो भी बिन्दु बन जाएगी। Everything moulds into something else when seen from different space and time and it translates into something else when different lens is there.
– विस्फोट!!!!
– हाँ! मेरे भीतर भी!!
(दोनों को अब खेल में मज़ा आने लगा है। वो उत्साह से अगला पन्ना पलटते हैं।)
– द मिस्ट्री ऑफ़ थिंग्स इस इन देयर ऑब्जेक्टिविटी नॉट इन देयर सब्जेक्टिविटी। ऐसा निर्मल वर्मा ने यहाँ कहा। लेकिन इससे एक सवाल मन में उठता है कि – इज़ आर्ट सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव? और बोथ?
और रिल्के ने अपनी कविताओं में ऑब्जेक्टिविटी पर फोकस ज़्यादा क्यूँ किया यह समझने के बाद?
– मेरे ख्याल से निर्मल वर्मा यहाँ असल में आर्ट किस तरीके से इस्तेमाल की जानी चाहिए पर बात कर रहे हैं। कुछ लोगों के लिए कला माध्यम है किसी सत्य तक पहुंचने का। कुछ के लिए कला ही सत्य है।
अगर हम सिर्फ कला का इस्तेमाल कुछ महसूस करने के लिए कर रहे हैं तो वो भी ठीक नहीं या कह लो बाजारू उपयोग है उसका। और अगर सिर्फ सत्य देख रहे हैं कला का और उससे प्रभावित नहीं हो रहे तब वो कला के साथ न्याय नहीं है। हमें बीच का रास्ता ढूंढना होगा जिसमें कलाकृति हमें महसूस भी कराए। मतलब वो भीतर कुछ उथल पुथल भी करे, भीतर का कोई सत्य उजागर करे और साथ में हम उस objective reality को भी जान सकें जिसके आधार पर कलाकृति बनी थी। क्यूंकि उसके ज़रिए हम उसको समझ पाएंगे।
– और बहतर से समझाओ.. किसी उदाहरण के साथ।
– जैसे Steamroller and the violin मूवी हमारे भीतर कुछ छेड़ती है। जो एक film का काम है। यहां पर हमारा काम होगा कि हम ये भी समझें कि film है क्या। सिर्फ उसे ये देखकर न छोड़ दें कि यार बड़ा अच्छा लगा। हमें ये भी देखना होगा कि फिल्म किस सेटिंग में है। वो बात कर रही है एक ऐसी सोसाइटी की जो mechanical advancement की तरफ बढ़ रही है। Steamroller उसका प्रतीक है। बिल्डिंग का ढहना उसका प्रतीक है। वहीं उसके बीच में संगीत जैसा कुछ है जो human है जो bond है कि इस mechanical advancement के बाद भी इंसान companionship चाहता है। It’s the faith in softness (nature).
The Steamroller and The Violin – Tarkovsky’s Visual Music
अब ये हो सकता है objective reality आपको कुछ महसूस न करा पाए। या आप न करने दो। पर ये समझना। सब्जेक्टिव से अलग ऑब्जेक्टिव को देखने से कला का कुछ उद्देश्य तो पूरा हुआ। अगर हाँ इससे आपके भीतर कुछ ट्रिगर होता है (जो हमारे भीतर हुआ) तो यह और भी अच्छा है।
– विस्फोट! अरे यही तो विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में भी है। एक सेंस ऑफ ऑब्जेक्टिविटी। हाथी आगे आगे जाता था, उसकी छूटी खाली जगह उसके पीछे पीछे जाती थी। वो ऑब्जेक्टिव रियलिटी की ही बात कर रहे हैं। हम समझ भी रहे हैं कि होता यही है। हाँ इसके बाद हमारे भीतर से कुछ निकलता है जो कहता है कि ये देखने की नजर कितनी सुंदर है… ये सरलता।
Deewar Me Ek Khidki Rehti Thi | Vinod Kumar Shukla
विनोद कुमार शुक्ल- कविता से लंबी कविता | Review | पढ़ने के Top 10 कारण
– हाँ वही! That is also the work of art. I think it depends on what you want the art to be!! You can use it as a means towards an end or you can see it as the ultimate end. (And that is the paradox of art!) It asks you to detach yourself to see the meaning at the same time asking you to attach yourself to it to understand the meaning. But the moment you attach yourself, the meaning eludes you.
– भयंकर विस्फोट!!!
सुनो, अपना हाथ लाओ इधर।
(दोनों एक दूसरे की हथेली को छूते हैं। उनकी आँखों में हरी रोशनी सा कुछ चमक रहा है। उन्हें दूर कहीं Gatsby दिखाई देता है। उस हरी रोशनी को अपनी मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश करता हुआ।)
देखा! हाथ आते ही सब छूट जा रहा ना? यह एहसास की हम हैं। और एक दूसरे के हाथ को छू रहे। इसे कितना भी बटोरना चाहो.. यह अगले ही क्षण स्मृति से गायब। पता, पहले लगता था कि यह ठहरा हुआ है.. इसे बटोरा जा सकता है.. लेकिन इन दिनों यह रेत के कणों सा भागता हुआ महसूस होता है। It’s elusive just like meaning.
(वो किताब के अगले पन्ने पर आ जाते हैं।)
– यह quote डेविल वाला perspective का है। Perspective भी वो जो कि past से बना है। तितली ने देखा है कि इंसान जब भी आता है, तबाही लाता है, बुरा होता है। तो वो बचती है। तितली के लिए इंसान devil है क्यूंकि हम उसके लिए हमेशा तबाही लाते हैं। इंसान के लिए devil या कह लो उसके प्रारूप डेविल हैं क्यूंकि वो तबाही लाये। तो कैसे एक कहानी कि वजह से पूरा perspective affect हो रहा है।
– और यह कला में अर्थ के बारे में है। ये मैंने पढ़ा तब भी सोचा था। गीत चतुर्वेदी (Adhuri Chizon Ka Devta – Geet Chaturvedi | The Third Eye of the Poet) ने अपने interview मे कहा कि उनके लिए कविता की हर लाइन सुंदर होनी चाहिए। मानव कौल का कहना है कि जितना सरल उतना सुंदर। विनोद कुमार शुक्ल भी हर शब्द की अनिवार्यता पर जोर देते हैं। उनके लिखे में हर शब्द सटीक होता है। वो वाक्य विन्यास उन्ही शब्दों से बनता है – ना कम ना ज्यादा। हर एक शब्द necessary, कोई एक भी हटा तो पूरा अर्थ बदल जाएगा। गीत चतुर्वेदी की कविताओं में भी। हर शब्द अपनी जगह पर एकदम सटीक। मानो वही उनका प्राकृतिक मतलब है।
– यही तो प्रकृति भी करती है, है ना? क्यूंकि प्रकृति में कोई चीज ना तो कम होती है और ना ज्यादा। पर्याप्त होती है। एक संतुलन। और प्रकृति का मीनिंग बस उसके होने में है। पत्ती का होना अपने में पूरा है। वो जरूरी है और बस इतना काफी है। Not a subsidiary part. And that’s the meaning.
– And when art achieves that state in which it is complete in it’s meaning, it is what it is..it becomes something extraordinary. Like Tarkovsky. Every frame is optimum. हम अगर अर्थ ना भी निकाले फ्रेम में – वो अपने में सम्पूर्ण है। अपने में सुंदर है। अपने में जरूरी है। उसे अब audience की जरूरत नहीं है अपना meaning लाने की। उसके बिना भी वो पूरी है। Although that is for the audience. (The paradox of art)
ठीक यही विनोद कुमार शुक्ल की लिखाई में है – वाक्य अपने में सुंदर। उसका अर्थ अपने में निहित है। तुम अपना अर्थ लेकर ना भी आओ तब भी अपने में सम्पूर्ण। जैसे कि यह-
एक चिड़िया गई एक चिड़िया की छाया गई पेड़ की छाया टुकड़े-टुकड़े चिड़ियों की छाया होकर चली गई चिड़ियों के साथ।
ये दृश्य अपने में पूर्ण है। इसमें तुम्हें दृश्य मिल रहा है और उसका अर्थ भी। ये प्राकृतिक है और तभी ये सुंदर है और तभी भीतर कुछ छू कर जाता है।
– विस्फोट! सुंदर! कितना सही कहे तुम।
– हैं ना?!
- मानव कौल की लाइन – मैं ठोकर खाकर बहुत पहले गिर चुका था, जो उठकर भागा वो मैं नहीं था। – ये अपने में पूर्ण वाक्य है। हमें जरूरत नहीं है कि अपना अर्थ दें और उसके बिना भी ये अपनी पूरी बात कह जाएगा।
- गीत चतुर्वेदी – बुरी लड़कियां नर्क में जाती हैं, और अच्छी लड़कियाँ भी स्वर्ग नहीं जाती।
- निर्मल वर्मा – इस दुनिया में कितनी दुनियाएँ खाली पड़ी रहती है जबकि लोग गलत जगह पर रहकर सारी ज़िंदगी गवा देते हैं।
- Franz Kafka- You are free, and that is why you are lost.
- Samuel Beckett – Nothing happens. Nobody comes, nobdoy goes. It’s awful.
ये सारी lines natural फ़ील होती हैं। कम से कम मुझे तो। मुझे नहीं लगता एक भी शब्द बढ़ाने या घटाने की जरुरत है। अपने में निहित एक सम्पूर्ण संसार। अपने में अर्थपूर्ण और अर्थहीन एक साथ। शायद यही प्रकृति है।
– मुझे भी वही लगा इनको पढ़कर जो तुमने कहा। यह सब अपने आप में, अपने होने की.. दृश्य की ऑब्जेक्टिविटी में.. सम्पूर्ण हैं अपने अर्थ और अर्थहीनता दोनों के साथ।
(वो किताब के अगले पन्ने पर पहुँच जाते हैं और खेल अपनी पूरी जिज्ञासा में चालू रहता है।)
– मैंने आँखें बंद करी और काफ्का की कब्र हो जाने की कल्पना करने लगी जो बहुत शांत रात में कब्रिस्तान की जमीन पर अकेली लेटी हुई है और उसकी सतह पर आसमान के पेट से गिरती हुई बर्फ किसी चादर सी बिछ गई है। मेरी सासों की गर्मी से वो बर्फ हल्की सि पिघली और मेरी एक आँख से रिस गई।
– तुमने यह काफ़्का की कब्र वाली बात कितनी सुंदर लिखी है!
– हैं ना?! कैसा होगा अगर मैं असल में कभी काफ़्का की कब्र देख पाई? कितना सुंदर होगा! एकांत.. मौन.. एक ठंडी जमी हुई शुद्धता।
– तब तो तुम वहाँ जा चुकी हो। अपने मन में ही।
– हाँ, बिल्कुल! जब निर्मल वर्मा का लिखा पढ़ा तो लगा मैंने भी सच में वो सब देखा जो उन्होंने देखा था। It’s surreal!
चलो अब आगे बढ़ते हैं..
– इनका कहना कि उन्हें अपने impressions के लिए बाहर के शब्द, चित्र और बाकी चीजें ढूँढनी बंद करनी चाहिए। क्या ये इसलिए नहीं कहा क्यूँकि हम असल में समझ नहीं पा रहे अंदर के इंप्रेशन? या फिर अंदर इंप्रेशन इतनी सारी चीज़ों के बीच हैं कि उस ढेर को खंगालने में हमें बाहरी चीज़ों का सहारा लेना पड़ता है। वही, रिल्के के पत्र की बात जैसे “शब्द भीतर के कचरे को बाहर फेंक कर जरूरी चीजों को प्रकाश में ले आते हैं।” शायद नेरुदा आजकल मेरे साथ ये कर रहे हैं।
दूसरा ये कि दृष्टि से देखने पर बटोरना और खर्च करना। देखने में संपूर्णता। जो बचेगा वही सत्य रहेगा, झूठ झरता जायेगा। जरूरी ये है कि हमने अपनी नजर का इस्तेमाल किया। हर किताब से हमें कितना याद रह जाता है? फिल्म से? किसी गाने से? कुछ वाक्य, कुछ खास दृश्य, कोई खास नजर, कोई खास आह, किसी का हाथ भींचना, कोई एक धुन का टुकड़ा… बस क्योंकि बाकी सब हमने देखने पर खर्च कर दिया।
– विस्फोट! मतलब यही तो रह जाता है साथ हमेशा.. एक निचोड़। बाकी सब तो खर्च हो जाता है।
– तुम्हें याद है एक बार मैंने कहा कि शाम कितने दिनों बाद देखी है। जब लगभग दो महीने बाद शाम देखी थी। वो नजर संपूर्ण थी शायद। अब उस शाम का क्या याद है? सिर्फ दो चिड़िया, जो मंद गति से उड़ते हुए ढ़लते सूरज की तरफ जा रही थीं। इस दो घंटे में से 2 सेकंड। क्या उन दो सेकंड में हमने दो घंटे की अनुभूति को नहीं समेट लिया? अंत में क्या बचता है – एक बिंदु!!
(दोनों के चेहरों पर एक खुशी है। उनके हाथ में जीवन के रहस्यों की कुछ पुड़ियाएँ खुली पड़ी थीं। जीवन ने कोई रहस्य नहीं बनाए थे। लेकिन इतनी बड़ी दुनिया में जहाँ लोगों को प्यार से रहने के लिए तब भी जगह कम पड़ जाती है, वहाँ जीवन इन सरल बातों को रहस्यों की पुड़िया में लपेट कर सबके हाथों में छिपा देता है।)
– सुनो, अपने एकांत में पीड़ारहित भी रहा जा सकता है। ये हर कुछ दिनों में महसूस होता है मुझे। कभी कभी झूठ लगता है। तब बहुत जोर से घर बुहारने का मन करता है।
खुद को प्रकृति को सौंप देना। बहुत कभी कभी हम ऐसा करते हैं न? जैसे परसो आंधी आई थी। तब रात में सिर्फ बैठा रहा। बहुत देर बाद नेरुदा को पढ़ना चालू किया। और इन्होंने जो वो लाइन लिखी कि मेरा अकेलापन मेरी फैंटेसी को फॉर्म नहीं देगा। बल्कि उसके भीतर की परत ढूंढेगा। ये अब थोड़ा थोड़ा समझ आ रहा। अकेलापन था तो मैं जीतू (नाटक का पात्र) की फैंटेसी के भीतर की परत ढूंढ पाया। इसलिए ही शायद इतना परेशान था। अकेलापन काट रहा था। उसने जीतू को फॉर्म नहीं दिया बल्कि उसके भीतर को उजागर किया। ठीक लेखन के साथ बीते दिनों से ये हो रहा है। अकेलेपन की पीड़ा बहुत कम आ रही है, बल्कि वो भीतर की परतों को खोल रहा है। और वही महसूस करने को लिखना शायद जरूरी है? यह अच्छा लग रहा है। अपनी तरफ बढ़ते छोटे कदम।
(वो किताब के अगले पन्ने पर आ जाते हैं। वहाँ फ्लाबे और जीद के कथन लिखे थे। रहस्य की एक पुड़िया उनके हाथ में खुलने लगती है।)
– ये कितना सरल है!! है ना? तुम्हें अच्छे से मालूम है कि सब कुछ माया है। यथार्थ जो झूठ है और कल्पना सच ― विनोद कुमार शुक्ल। तुम बस यथार्थ को लिखते हो जैसा तुम्हें दिखता है क्योंकि अगर यथार्थ माया है और तुम्हें पता चल गया है कि तुम माया में हो तो तुम माया को mould कर सकते हो। तुमने Matrix (फ़िल्म) देखी है? If you know that you are in matrix, you can change it’s rules.
हर artist यही तो कर रहा है ना? फ्लाबे ने लेखक के पर्सपेक्टिव से कहा है – तुम बाहरी दुनिया का मायाजाल कहानी में सच की तरह लिखते हो तोड़ मरोड़ कर क्योंकि तुम उस माया से खेलना सीख गए हो पर उसके लिए तुम्हें वो separation भी बनाना पड़ेगा जिसके लिए माया में जीना भी जरूरी है। It’s contradiction.
फ़िर जीद की बात कि वो सेपरेशन नहीं देखते। वो कहते हैं रियलिटी है तो मैं उसे mould कर सकता हूं। क्या फर्क पड़ता है कि वो झूठ है या सच। वो झूठ और सच से परे होकर लिखते हैं। ये उनका तरीका है।
– हाँ! दिस मेक्स सो मच सेंस! सुंदर बात कही तुमने!
– यस! एवरीथिंग मेक्स सो मच मोर सेंस नाउ! जैसे किसी साफ़ शीशे से देख रहे हों जो बस अभी साफ़ हुआ है। अभी अभी निर्मल वर्मा की “वे दिन” किताब खत्म की। ऐसा लगता है ये सब इनके साथ घटा। एक वाक्य भी झूठ नहीं लगा। न ही एक भी इमोशन। क्या वो सारे डर जो इन्होंने उपन्यास में लिखे हैं सच होंगे? क्यूंकि जिया तो होगा ना वो डर। ये हो सकता है उस डर की form अलग रही हो पर content तो वही है। Content (जो कि सत्य है) और form (माया, flexible) के mix से इन्होंने उपन्यास लिखा। क्योंकि content सत्य के करीब है तो form में क्राफ्ट इस्तेमाल हुई है। अब ऐसे सोचता हूं तो अभिनय भी वही जान पड़ता है। मैं जिस प्रोसेस से प्रभावित हो रहा हूं और जिसकी तरफ बढ़ रहा हूं उसमें मेरे लिए सबसे पहले content सत्य होना चाहिए। यानी मेरे पात्र के इमोशन, उसके motivation सत्य होने चाहिए जिनको मैं अपनी बॉडी और एक्सपीरियंस के फॉर्म में अपनी क्राफ्ट की क्षमता में फिट कर पाऊंगा तब जाकर वो डिलीवर होगा।
इरफान भी तो यही कहना चाह रहे थे जब उन्होंने यह कहा ― Body is the form and emotion is the content.
– विस्फोट! विस्फोट! विस्फोट!! यह बात जीवन भर साथ रहेगी। तुमने कितनी सरलता से कह दी। भीतर से कितने सुंदर होते जा रहे हो तुम।
– चलो तो फ़िर आगे पढ़ते हैं..
– पहली दो लाइनें कामू की मिथ ऑफ सिसीफस से जुड़ी हैं.. तुमने देखा? सिसीफस की तरह हम भी तो अपने भीतर को एक पत्थर की तरह रोज़ ढोने की कोशिश में लगे रहते हैं एक अच्छी जगह पहुँचने के लिए और हर बार वो पत्थर गिर जाता है नीचे। यह चलता रहता है लेकिन इस पूरे लूप में हमारे भीतर का पत्थर हर बार ज़रुरी नहीं कि उसी आत्म पतन की बिंदु पर गिरे जहाँ पिछली बार गिरा था। यानी जीवन की तरह ही इस लूप में, हमारे भीतर के लूप में भी.. हमारी ग्रोथ तो होनी चाहिए। यह बुरा तब है कि आत्म पतन का बिंदु हर बार एक ही है, यानी हमारी कोई ग्रोथ ही नहीं हुई।
और हमारी आत्मा और हमारे बीच सेपरेशन है? क्यूँ? मतलब क्या है इसका? हमारे कार्यों से हमारे आत्मा अलग थलग रहती है निर्मल वर्मा ने कहा। वो हम है लेकिन वो हमारी नहीं। क्या यह आत्मा हमारे भीतर का वही हिस्सा है (हमारे दिमाग का, मन का) जिसमें हमारी एक अपनी सेल्फ इमेज है? जो हमें बोध कराता है इस बात का की जो कुछ भी हमने गलत किया है वो गलत है.. इसलिए हमें उसका गिल्ट होता है। और इसलिए हमारी आत्मा हमारे लिए प्राथना करती है?
यह ऐसा है कि कर्म तो हम कर रहे हैं। और अगर वो गलत है या सही इससे हमें कोई फर्क नही पड़ना चाहिए पर पड़ता है.. हम खुद से घृणा करते हैं। ग्लानि होती है क्यूंकि हमारे भीतर कुछ है जो हमारे हिस्सा होकर भी कर्मों में हमसे अलग थलग है। अगर नहीं होता तो हमें अपने गलत होने का एहसास कैसे दिलाता? हर व्यक्ति के भीतर उसकी आत्मा उसे कभी सोने नहीं देती.. उसे ग्लानि और घृणा का एहसास दिलाती है.. यानी कुछ तो है जो हमें अपने को और बेहतर इंसान होने की आशा दिखाता है और कहता है कि तुम जो हो उससे बेहतर इंसान हो सकते हो। और इसीलिए हमारी पीड़ा में, मुश्किलों में, आत्म पतन के क्षणों में हमारी आत्मा हमारे लिए प्राथना करती है। हमें ‘ हम और बेहतर मनुष्य हो सकते हैं ‘ कि रोशनी दिखाना चाहती है। हमारी आत्मा ही ईश्वर है असल मायनों में?? क्यूँकि हम ईश्वर को इसलिए ही पूजते हैं ना कि वो हमें बेहतर इंसान होने की आशा दिखाते हैं.. तभी तो उनकी इमेज परफेक्ट होती है हमारे दिमाग में। तुम अपने से बेहतर से ही तो प्रार्थना करोगे ना कि वो तुम्हें राह दिखाए और तुम्हारी गलतियों को स्वीकार कर ले। यदि ईश्वर को तुम अपने ही दयनीय और दरिद्र सेल्फ की तरह मानते तो क्या प्रार्थना कर पाते?
ईश्वर से की गई प्रार्थना आत्मा की हमारे लिए प्रार्थना है असल में?
– हाँ। शायद। आत्मा में विस्फोट!!
– और अंत मे जो आशा है निर्मल वर्मा के वाक़्य में की हमें बहतर होना चाहिए वो उनकी आत्मा की ही कही तो बात है। आत्मा, ईश्वर.. सब आशा है? बहतर होने की? अपनी गलतियों को स्वीकार कर उनसे बहतर होने की?
क्या यह सब खुद को स्वीकार लेने के बारे में नहीं है यहाँ? निर्मल वर्मा अपने भीतर को, अपने सेल्फ को उसकी पूरी दरिद्रता, दुख और दयनीयता में स्वीकार कर रहे हैं। उनकी आत्मा उनको स्वीकार करके बेहतर होने की आशा दे रही है।
(दोनों मुस्कुरातें हैं और आशा से भरी एक साँस छोड़ते हैं। जैसे किसी पहाड़ की चोटी पर खड़े हों। जंगल भी आशा की हवा में लहलहाता हुआ हरा.. और भी हरा होता चला जाता है। अब वो एक आखरी पन्ना पलटते हैं।)
– इस मनःस्थिति को समझ सकते हैं अभी इस वक़्त में?? या जीवन और जीना ज़रूरी है??
– यह मुझसे भी छूट रहा। शायद और जीवन जीने की ज़रूरत है अभी हमको। अभी नहीं लग रहा कि इस दुनिया में अतिथि की तरह आना महसूस कर सकते हैं।
(अब जाने का समय था। जीवन इंतज़ार कर रहा था उनका.. जिए जाने की आशा में। दोनों गले लगते हैं। फ़िर जंगल को शुक्रिया कहकर चले जाते हैं। उनकी खाली जगह में परिधि बहुत देर तक अकेली बैठी उनकी बातों को अपने भीतर इकट्ठा करती है। उसके चेहरे पर एक मुस्कान है।)
Also: निर्मल वर्मा के बहाने – एक लेख
Adhuri Chizon Ka Devta – Geet Chaturvedi | The Third Eye of the Poet
समानांतर दूरी पर पास पास बैठे हुए दो बिंबों के बीच की जगह के बारे में क्या कुछ भी ठीक से कहा जा सकता है? उस बीच की जगह को किन पैमानों पर नापा जा सकता है? दूरी के या नज़दीकी के? क्या वो बीच की जगह परिधि है? परिधि.. जीवन की? परिधि पर बैठे पँछी जीवन को किस नज़र से देखते होंगे? क्या परिधि ही वो जगह है जहाँ सारे नज़रिए एक साथ आ जाते हैं.. जहाँ सच और झूठ के पत्थर अपना रँग खो देते हैं? क्या परिधि पर सब कुछ सम्भव है और कुछ भी नहीं? और अंत में.. यह सारे सँवाद.. क्या यह परिधि पर हमेशा से ही पड़े थे और इन्हें बस उन दो पंछियो ने अपनी चोंच से चुग लिया था? क्या परिधि ही सँवाद है?
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