कुछ नया घट रहा है। नयी दिशा में बढ़ते हुए। दिल इतना कांपा जब वो छोडकर जा रही थी कि लगा जीना संभव नहीं हो पाएगा। पर जीते गए। हमेशा पीछे छूट जाने को कैसे समझते हैं? पीड़ा में पड़े हुए तुम खुद को कैसे समझते हो? कैसे समझते हुए जीवन को?
तुम एक को छोडकर दूसरे को पकड़ना चाहते हो। हमेशा से। और कभी फिर आगे बढ़कर… बीत जाना चाहते हो? तिकड़म लगाते हो कुछ कहने के! बात आगे बढ़ाने के। पर असल में कुछ नही होता। इतना तिकड़म जीवन में काम आता है क्या? आता भी होगा तो मैं वो नहीं… ऐसा कहते हो। स्वीकार करना बहुत धीमी यात्रा है। ऐसा लगता है किसी ने बहुत ऊंचे पहाड़ से अचानक से धक्का दे दिया। और तुम बस दूर से जिस सुंदरता को देखकर आह भर रहे थे वहाँ अब इतनी तेजी से गिर रहे हो कि पता है टकराते ही मृत्यु ही हाथ आएगी। और मृत्यु से इतना डर। इतना गहरा। भीतर बैठा डर।
प्रेम की कमी लगातार। क्यूंकि अपने मन का प्रेम चाहिए। या प्रेम के पीछे कोई लालसा छिपी बैठी है। जिसको तुम प्रेम के चमकीले लिफाफे में लपेटकर बार बार खुद के सामने ही परोस देते हो जिससे उसके घिनौनेपन से सामना न करना पड़े। कितने अजीब, कितने उलझे। कितने लिथड़े। चलो भी। छोड़ दो।
छोडना क्या होता है? कल देह छोडने की कोशिश थी। फिर सांस। मन कैसे छोड़ें? कुछ भी कैसे छोड़ा जाता है? क्या कोई उत्तर है आगे? वो कहती है कि तुम सरल पसंद नहीं करते। मैं कहता हूँ मैं सरल की तरफ जाना चाहता हूँ लेकिन शायद देह और मन को कठिन की आदत है। हम दोनों एक ही बात कहते हैं। पर तब भी दूर हैं।
एक जैसी बात कहने के बाद भी हम दोनों एक दूसरे से बहुत दूर बैठे हुए थे। उसने कहा यही जीवन है। मैंने कहा जीते कैसे हैं? उसने कहा तुम्हें पता है। मैं चुप था। क्या मुझे सच में पता था। मुझे कह देना चाहिए था कि मुझे नहीं पता। ठीक वैसे जैसे कभी कभी कपड़ों में रखा सिक्का खो जाता है, हमारे पास होते हुए भी हम भूल जाते हैं। जैसे कोई जरूरी चीज़ आँखों के सामने होने के बाद भी नहीं दिखती। (शायद हमने मान लिया होता है कि हमें नहीं मिल रही) ठीक वही अभी हो रहा है। मुझे नहीं पता कि कैसे जीते हैं। पर ये सब कहने से पहले वो अपनी सीट से उठ चुकी थी। मैं चाहता था वो ढंग से विदा ले। हाथ हिला दे। मुस्कुरा दे। कुछ कह दे। उसने कुछ नहीं कहा। जैसे कि मैं… ये ट्रेन हूँ। और दरवाजा खुला। और वो बाहर चली गयी। मेरा हाथ बीच हवा में उठा रह गया। मेरी मुस्कुराहट चेहरे के पीछे से बाहर आने के लिए झांक ही रही थी। और झाँकती रह गयी। और फिर ट्रेन आगे बढ़ गयी।
अब मैं इस मुस्कुराहट और उठे हाथ का क्या करूँ? मैंने हाथ को अपने चेहरे पर रखा। मुस्कुराहट को छिपा लेना चाहता था। मैंने हाथ काटना शुरू कर दिया। जिससे दर्द हो। और मुस्कुराहट थम जाये। पर नहीं थमी। मेरे होंठों के कोने और उठ गए। और फिर आँसू। पर मैं रो क्यूँ रहा हूँ? कोई उत्तर नहीं। अगले स्टेशन पर जब मैं जा रहा था तो मेरे पास सवालों की लिस्ट में एक और सवाल जुड़ गया था।
घर पहुँचने पर मैंने खुद को खुद से पूछते हुए पाया। मैंने उससे कहा क्यूँ नहीं कि सुनो, ढंग से विदा ले लो। पर क्या हम इतना एक दूसरे को जान गए थे? वो कौनसा पड़ाव होता है जब हम पूरे हक़ से कह सकते हैं कि सुनो अच्छे से विदा लिया करो। और हक़ हम तब ही दिखाते हैं जब पता है कि सामने वाला हमारे हक़ दिखाने का अपमान नहीं करेगा। क्या मैं अपमान से डर रहा था? पर हम तो दोस्त थे। थे न? क्या पता।
मैं कभी कभी लिखने का सहारा भविष्य जीने के लिए लेता था। वो भविष्य जो आएगा या नहीं कुछ पता नहीं। पर लिखते हुए मेरी सांस उस समय वो महसूस कर लेती जिसके आने की संभावना मेरी हाथों की लकीरों के ठीक पहले जैसी रहने पर निर्भर करती थी। और हम सबको पता है कि हाथों की लकीरें बदलती रहती हैं। नदी जैसे। जाने कितनी नदी अपने में डूब गयी होंगी जब जाकर हमारे हाथों में उनके खुद के डूबने के निशान बाकी हैं। हमारे हाथों ने कभी नदियों को रास्ता देना सीखा होगा। ये तब की रेखाएँ हैं।
और पर्वत?
उसने पूछ लिया। आज फिर वो सामने बैठी थी। उसी ट्रेन पर। उसी स्टेशन पर।
पर्वत का पता पर्वत को मालूम होगा।
मुझे तुम्हारी बातें बहुत बार समझ में नहीं आती।
मुझे भी खुद की बातें बहुत बार समझ में नहीं आती।
तुम खुद को romanticize करते हो। अपने ना जानने को। अपने जीने की परिभाषा को ढूँढने की ऊहापोह को। उसकी उलझन को।
तुम्हारे प्रेम में होने को भी।
तुम मेरे प्रेम में हो?
हाँ।
पक्का?
शक करने की हिम्मत नहीं होती।
कायर हो?
हाँ कहूँगा तो क्या तुम आज अच्छे से विदा कहोगी?
मतलब?
जो मैंने कहा।
मैं ऐसी ही हूँ। तुम अभी से मुझे बदलने लगे।
माफ करना।
मैं झेंप कर अपने में सिमट गया। मेरे पास लोग बैठे थे। लेकिन मैंने अपने हाथ पैर अपने पास खींच लिए। अपने शरीर को इतना सिकोड़ लिया कि मेरी देह और मेरे दोनों तरफ बैठे लोगों के बीच एक एक इंसान का फासला बन गया। मैं नहीं चाहता था वो इस समय मेरी तरफ देखे। ऐसे नहीं। कमजोर। नहीं। उसकी बात पर आहत होने वाला। नहीं। तभी उसके सिर के पीछे सूरज अस्त होने लगा। ढलती लाल रोशनी में उसके बाल सुनहरे चमक रहे थे। अगले स्टेशन पर वो चली जाएगी। मैं मुस्कुराने लगा। मैं मजबूर था। मुस्कुराहट पहले से मेरे चेहरे पर आने लगी। practice करने। मेरे हाथ में हल्का दर्द होने लगा। वो उठ जाना चाहता था। ऊपर। जिससे पहले से मैं उसे विदा कहने लगूँ और तब उसकी मजबूरी बन जाएगी कि मुझे विदा करे। और फिर हम…
फिर क्या? स्टेशन आया। और हम दोनों के बीच भीड़ आ गयी। मेरी हिम्मत भी नहीं हुई कि मैं खड़ा हो जाऊँ और उस भीड़ की दीवार के बीच से हाथ आगे बढ़ाकर उसे अलविदा कह दूँ। पहला तो मुझे पता कैसे चलेगा उसका हाथ कौनसा है। दूसरा उसे कैसे पता चलेगा कि ये मेरा हाथ है! तीसरा मैं अपनी सीट नहीं खोना चाहता था। मुझे पता था जैसे ही मैं अपनी (अभी की) जगह से उठूँगा तो कोई न कोई जरूर ये जगह छीन लेगा। तो मैं अपने कोने में बैठा रहा। लेकिन इस बार मैंने शरीर को फैला रखा था। अंदर से सिकुड़ रहा था। जिससे बाहर से कोई मेरे और मेरे पड़ोसी के बीच वाली जगह में बैठ न जाये।
और भीतर की जगह?
ये उसने नहीं पूछा। मैंने खुद पूछा। मैं लगातार खुद से बहुत बातें पूछता था। मैं लगातार सोचता कि अपनी प्रेम कहानी लिखुंगा। प्रेम के बारे में ऐसा लिखुंगा जिसे दुनिया ने कभी नहीं जाना होगा। एक नयी परिभाषा। पर जब भी लिखने बैठता तो दिखता कि असल में प्रेम की बहुत कमी है। या फिर प्रेम देखने वाली मेरी आँखें कम देखती हैं। और मैं चुप हो जाता। लिखना बंद हो जाता। मन ही मन मैं बहुत सुंदर कहानी लिख रहा होता। इतनी सुंदर कि जिसे पढ़कर किसी के भी बदन में खलबली मच जाये। वो वाह वाह कर उठें। मेरे नाम से सड़क के नाम रखें जाएँ, सोसाइटी के… और जाने क्या क्या… पर उँगलियाँ कहती कि भाई अभी ये हम नहीं होने देंगे। बड़ी बात ये कि मैं उनसे लड़ता भी नहीं था। तो मेरा लिखा असल में विलाप होता। मैं प्रेम चाहता था। इतना प्रेम कि मेरा मन कहने लगे कि भाई बहुत ज्यादा प्रेम हो गया है और चलो यहाँ से भाग चलो।
अब मैंने तरीका भी बदल दिया था। पहले मैं किसी से प्रेम होते ही उसे बता देता था कि मुझे तुमसे प्रेम है। और अब मन होता है कि चुप रहूँ। कह देते ही प्रेम पराया हो जाता है। बांटने का भाव खत्म होता जा रहा है।
Art by – Yozo Hamaguchi
बिखेरने की आज़ादी और समेटने का सुख – लिखने की इससे बेहतर परिभाषा की खोज में निकला एक व्यक्ति। अभिनय से थककर शब्दों के बीच सोने के लिए अलसाया आदमी।
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