मैं कौन हूँ? क्या इस सवाल से कोई कहानी शुरू हो सकती है। हो सकती है। कहानी की संभावना हमेशा रहती है। जीने की संभावना हमेशा रहती है। कहना छूट रहा है। फिर जो भीतर है वो बाहर कैसे आए? क्या जीभ में थकान भर गयी है। जीने की। भीतर का जीवन देखने की फुरसत तलाशते मैं उस शहर में पहुँच गया। जहां सब कुछ पानी का बना था। वहाँ भीतर दिखता था। साफ। लेकिन उससे आँखें चौंधिया जाती थी। ज़्यादातर लोग आँख मीचे दिखते।
देख लेने की थकान से आँखें बंद कर लीं। हम हमेशा उन कोनो में पाये गए जहां धूल भी जाने से थक जाती थी। भीतर होठों पर बुदबुदाहट रहती कि कोई देख ले। पर जब कोई खोजता तो खेल में इतना डूब जाते कि और छिपते जाते। चाहिए क्या है? वो बुदबुदाती। मैं हंस देता। अपनी कमजोरी को हंसी के पीछे छिपाता। नकाब पहन कर बाहर आता और कहता देखो ये मैं नया हूँ। वो नकाब को उतार कर फेंक देती। और मैं खुद को नंगा पाता। फिर छिप जाता। वो साफ थी। निर्मल। और मैं?
कितने दिन हो गए। न कहानी। न कविता। ऐसा लग रहा है जैसे ये रास्ता कब से नहीं देखा। जहां बंजर जमीन थी अब घना बीहड़ उग आया है। और उसमें घूमने का बहुत मन है। मैं खुद को धीमे धीमे सुलझाना चाहता हूँ। बीच में बहुत सारा जीवन उलझा सा इकट्ठा कर लिया। क्या किसी कहानी से उसे सुलझा सकते हैं?
मेरे दोस्त मेरी तरफ ऐसे देखते जैसे मैं बदल गया हूँ। मैं फूहड़ सा चुटकुला बनाकर हर बात को नकार जाता। जहर पीता। उस जहर से मेरा चेहरा गलने लगा था। और भीतर सब ऊबड़ खाबड़ था। जो बाहर आता। मैं चोट खाता। सबकी तरफ संदेह से देखता। और सब मेरी तरफ संदेह से देखते। तब मैं सह नहीं पाता।
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असफलता कहाँ बैठी होती है? क्या थक गए हो जीने से? कभी कभी लगता जीवन पहेली है। इसका स्वाद लो। पर जीभ अपनी ही बेकार। अरे रे उल्लू हो क्या? हाँ भैया उल्लू हैं। ये सब बातें कितने पात्रों में फैली हैं।
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बहुत से पात्र एक मंच पर। सब करते बेसुध सी बातें। अतरंगी सी बातें।
कौनसा सुर?
कौनसा गाना?
अरे तुझे धुन की पहचान।
गए तो लगे गाता है मेंढक!
तू क्या करेगा बनके चुंबक?
चुंबक के पास खींचने के लिए है सब कुछ। लोहा, लक्कड़…
लक्कड़ नहीं।
Flow मत बिगाड़ो मेरा।
गहरी सांस।
सारे पात्र एक साथ सांस भीतर खींचकर बाहर छोडते। बवंडर उठता और सब नाचते जैसे कि कूड़ा। जीवन नाम का बुद्ध आता। उसने कपड़े पहने rockstar के। चमकीले, भड़कीले। लॉकेट में लिखा है बुद्ध।
मैं हूँ बुड़ बुड़ बुद्ध!
बुड़ बुड़ बुद्ध!
हाँ बुड़ बुड़ बुद्ध।
ऐसे नाम न बिगाड़ो। मारने वालों की कमी नहीं है।
मरने वालों की भी कमी नहीं है।
ये कौनसी गली है? किसका दिमाग है? हम सब पागल हैं।
हाँ भैया पागल हैं। दुनिया ही पागल हैं। फिर समझदार कौन है? झूठ। छलवा। बार बार लगता है कि जीवन का रहस्य हाथ में आ गया। और तभी जीवन आता और थप्पड़ मारता ज़ोर से। मैं गिरता। और छिटक जाता जीवन का रहस्य। फिर उसको ढूँढने की मुहिम छिड़ती। रुक जाता ख्वाबों का सिलसिला।
क्या अपने होने को तलाशते हो?
ये बड़ी बड़ी बातों के पीछे कौनसे सच को छिपाए बैठे हो।
बताऊँ?
हाँ बताओ! नहीं नहीं, तुम सुन नहीं पाओगे!
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कहोगे कुछ?
मैं उनके सामने चुप बैठा था। उनके पास। मुझे उनका नाम पता था। पर मैं नाम नहीं ले सकता था। बताना भी नहीं चाहता। मुझे पता है मैं ये कहानी कह रहा हूँ। बिलकुल सच कहने की कोशिश। वो सामने बैठी थी। अगर मैं कहूँ कि हम कभी दोस्त हुआ करते थे तो क्या इससे कुछ बदल जाएगा? क्या आपके मन में कोई तस्वीर उठेगी। उनकी। अपनी किसी दोस्त की। वो दोस्त जो बीच में छूट गया हो। और फिर मिला हो। अब फिर सवाल उठेंगे। दोस्ती छूटने के।
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Painting by – Vilhelm Hammershøi
बिखेरने की आज़ादी और समेटने का सुख – लिखने की इससे बेहतर परिभाषा की खोज में निकला एक व्यक्ति। अभिनय से थककर शब्दों के बीच सोने के लिए अलसाया आदमी।
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