Diary #1 | Sattayish Minus Two

Walker Evans Photography

Photo by – Walker Evans

साल खत्म होने को है। क्या पाया क्या खोया के हिसाब से परे कुछ जीने की कोशिश में हरे भरे ठूंठ सा लिखता चल रहा हूँ। देखते हैं भीतर की यात्रा कहाँ तक ले जाएगी।

The years have passed
and it will be too late before we know what we really become.

– Amichai Yehuda

कैसे शुरू करते हैं कोई कहानी? कैसे शुरू करते हैं लिखना जो निज के भीतर बस रहा है! क्या मैं लिखना चाहता हूँ? आजकल बहुत सोचता हूँ कि क्या असल में लिखना चाहता हूँ? क्या मेरा मैं बहुत बड़ा हो गया है और उसका आकार इतना बड़ा है कि उसके आगे रहने से पीछे से आती रोशनी नहीं दिखती। सब कुछ एक अंधेरे में लिपटा दिखाई देता है। जबकि ये अंधेरा मेरा ही लाया हुआ है। निर्मल वर्मा ने कहा कि उनके भीतर कुछ अनूठा घट रहा था और वो उसे पकड़ पाने में खुद को असमर्थ देख रहे थे। क्या मैं भी वो जी रहा हूँ? अभी से।

लगातार माउंट आबु के सपने आते हैं। वहाँ मुक्त था। खुद को बार बार उस पंद्रह सौ साल पुराने पत्थर के मंदिर में पाता हूँ जहां जैन लोगों ने अपनी कला का अनूठा नमूना सबके लिए खोल कर रख दिया था। क्या मैं इसके थोड़ा सा भी पास जा सकता हूँ! लगातार अपने जिये पर सवाल उठाए मैं कौन हूँ? हूँ पर शायद मैं देखना नहीं चाहता। ढेर सारा चुप इकट्ठा हो गया है और उस चुप में कोई संगीत उभर भी रहा होगा तो मेरी पहुँच से दूर है।

*

1 : ढूँढने और खोने का क्या अर्थ होता है?

2 : मुझे भी नहीं पता।

1 : किसी को तो पता होगा न?

2 : बुद्ध?

1 : बुद्ध… (हँसता है) बचपन में शायद नानी की कहानी थी। आधी झूठी, आधी सच और बस… बुद्ध बहुत दूर हैं। अगर वो आयेंगे भी तो अपना समय लेकर आएंगे। धीमे धीमे। बहुत धीमे। रेंगते हुए। रास्ते में कोई उन्हें रोक लेगा और वो रुक जाएँगे।

*

उनका नाम वो था। वो बूढ़े हो गए थे। चलते चलते। एक दिन। यूँही। अचानक से जैसे। झुर्रियां चादर की सिलवटों में इकट्ठा होने लगी थी। उनका मन होता कि वो चादर ओढ़कर ही जीते रहें। कुछ देर के लिए धूप सेंक लेते। और हमेशा एक ऊन का गोला पास रखते। जिसमें गाँठे थीं। उनको सुलझाते रहते। एक बिल्ली पास में आती। उसका नाम उन्होने धूप ही रखा। धूप ऊन के गोले से खेलती। काटती। टुकड़े करती। वो टुकड़ों को जोड़ते रहते।

कभी कभी उन्हें कुछ याद आता। कोई आँगन। जहां पीली सुनहरी धूप होती। बिल्ली वाली धूप नहीं। सूरज वाली धूप। उनके पैरों में गुदगुदी होती। वो पैरों के तलवे को सहलाते। याद आता। धूप छांव का खेल। आँगन में उनके पैर पड़ते। पायल की आवाज़ आती। पलटकर देखते तो एक सुंदर सी औरत आँगन पार कर रही होती। वो उसे माँ कहते लेकिन वो पलटती नहीं। आँगन के पीछे कमरा था। एक बड़ा सा कमरा। उसके एक कोने में जहां धूप पहुँच नहीं पाती लेकिन उन्होने पूरी कोशिश करी होती, वहाँ एक मेज होती। बड़ी सी मेज। जिसके सामने एक कुर्सी पर एक बूढ़ा बैठा रहता। अपने में चुप। वो उसकी झुर्रियों को देखते। बानियान पहने उसकी देह को देखते। पिता कहने का मन होता लेकिन उतनी दूर तक आवाज़ चल नहीं पाती। कमज़ोर आवाज़ कमरे की दहलीज पर जाकर वापस लौट आती।

वो आँगन में बैठ जाते। दिसम्बर के दिन। धूप। नमी। सब कुछ से अछूते। यहाँ शहर की भीड़ में एक पार्क की बेंच पर धूप नाम की बिल्ली के बगल में बैठे वो असल में कहाँ रहते? कोई नहीं जानता। वो खुद भी नहीं जानते। तब तक वो उस आँगन और उस पार्क की बेंच पर बैठे रहते जब तक धूप ढल नहीं जाती। हल्की हंसी उनके चेहरे पर बिखर जाती। एक दिन और खत्म हो गया। ऐसे करते कितने साल गुज़र गए।

वापस आते। एक पतली सी किताब खोलते। लिखने वाली किताब। उसमें लिखते। हिसाब। दिनों का। बही खाता। जिये हुए का। पीछे पलटने का मन होता लेकिन फिर नहीं पलटते। उनके पास कोई नहीं था। जबकि घर में भीड़ थी। वो दो और लोगों के साथ रहते थे। दोनों जवान। उन्हें कभी कभी लगता उन्हें सही समय रहते चले जाना चाहिए था। कह देना चाहिए था कि मैं वो नहीं हूँ जिसके बारे में मैंने अब तक तुम सबको बताया है। और जिसे तुमने जाना है। ठीक है ये कहानी सबकी ही है। पर मैं… मैं…

हर दिन एक छोटी लड़ाई होती। कहीं चले जाने की। कुछ कह देने की। देह से कोमल कुछ भी नहीं। मन निष्ठुर है। मन ऐसा कीड़ा है जो भीतर ही भीतर खाता है। कभी काफ्का की कहानी पढ़ी थी और तब उसे देह का खेल समझ लिया था। पर असल में कीड़ा मन था। जो सामने आ गया था। बन गया था। और सब मन के अंदर था। काफ्का मन में कीड़ा था। वो अपनी इस खोज पर खुश होते। शीशा देखते। उन्हें अपनी उस कीड़े जैसी मूँछें दिखती। जो इंसान होने का सपना देख रहा था। दो पैरों पर खड़ा। दो आँखों से देखता। स्मृति और जीने के बीच डोलता। क्या असल में जीना वहाँ घटता है जो हम सोते जागते, चलते, फिरते, किसी से बात करते, भीड़ में किसी का हाथ पकड़े उसी को दोबारा खोज लेने की इच्छा से भरे हुए सोचते रहते हैं। क्या दो दुनियाओं के बीच में बहुत अंतर है? और उस अंतर को धूप साफ कर देती है। उजागर। सोचते सोचते वो सो जाते। आँख खुलती तो धूप सामने होती।

और क्या कहा जा सकता है उनके बारे में? उनके बारे में जिनसे मैं रोज मिलता था लेकिन फिर उनसे अंजान रहता था। जैसे कि खुद से। क्या कहा जा सकता है उन रातों के बारे में जब असल में कहने का मन था कि मैं सब कुछ छोडकर भाग जाना चाहता हूँ लेकिन कह नहीं सके। क्या कहा जा सकता है उन अंध विश्वासों के बारे में कि सब कुछ हमारा सोचा हुआ है। शायद उन्हें समझ में आ गया था कुछ भी सोचा हुआ नहीं है। कुछ भी। उनका होना भी। ये बस हमारा वहम है। ये सब है। बस। बस। इतना सरल। और फिर वो क्या कर रहे हैं? उस होने को जी रहे हैं। सह रहे हैं। अपने तरीके से। क्या उन्हें दुनिया का मर्म समझ में आ गया था?

अगर मैं आपसे कहूँ कि मैं ही वो हूँ तो क्या आप विश्वास करेंगे? आप कह सकते हैं कि क्या तुम विश्वास करते हो? और हम दोनों इस बात पर हसेंगे। संवाद करने की क्षमता खोती जा रही है। अपने धागे सारे उलझे हैं। मदद! हँसता हूँ। वो हँसते हैं। असल में सब सरल है। कितना! सोचना छोड़ा जा सकता है क्या? कितना सोचा जा सकता है! एक समय के बाद सब कुछ झूठ माना जाता है। अपना होना भी। बस हमारी उम्र का झूठ बहुत लंबा चलता है। लगातार आँखें बंद रखते और खोलते हम सपने में ही तो रहते हैं। ये सब कुछ बहुत… अजीब!!

एक एक शब्द भीतर जाते तुम क्या पाते हो? भीतर जाना भ्रम हुआ तो? सब भ्रम है! सब। ऐसा कह कर पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। सबके होने को करीब से देखते… इतनी उलझन कहाँ से इकट्ठा करी है? क्या हुआ है तुम्हारे साथ? पता नहीं। तुम कहीं खो गए हो क्या? पता नहीं। तुम्हारा नाम क्या है? अ रु ण। और? और पता नहीं।

क्या हो जाता है भीतर? पता नहीं।

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