Gehraiyaan : दुनिया का सबसे बूढ़ा भूत!

Gehraiyaan

साथी,

कल रात गहराइयाँ देखी शकुन बत्रा की। फ़िल्म देखने के बाद गहराइयाँ शब्द से रिश्ता बदल गया। गहराइयाँ कहते हुए मन में कितनी ही परतें खुलती हैं भीतर और कितनी फ़िर भी छूट जाती अनछुई। ठीक ऐसी ही है अलीशा। कहानी जिसके इर्द गिर्द घूमती है। शायद अब तक का सबसे सुंदर किरदार शकुन का। दीपिका ने इसे जितने करीब से जिया है वो बता पाना मुश्किल है। उसे सिर्फ़ देखा/जिया जा सकता है। मैंने किसी को इस तरह इतनी ईमानदारी से, इतनी सुंदरता से टूटते हुए बहुत कम देखा है। जैसे कोई मिट्टी की मूर्ति चटक रही हो अपनी ही चीखों से, अपने ही आँसुओं से गीली होकर गल रही हो। कहानियाँ हमेशा पानी के आस पास की ही होती हैं साथी भले ही लगती ना हो, क्यूँकि उनके किरदार हमेशा मिट्टी के होते हैं। तुम्हें पता है ना समुद्र की सबसे गहरी परतों में नहीं पहुँचती रोशनी की कोई किरण? समुद्र अपने सारे राज़ वहाँ छुपा के रखता है। किसी परिवार की मुस्कुराती तस्वीरों की तरह। (जिनमें से हम अक्सर कुछ चेहरे क्रॉप करने की बचकानी कोशिशें करते रहते हैं) या किसी घर की चार दीवारों की तरह। सबसे नीचे ही होता है सबसे ज़्यादा दबाव, प्रेशर समुद्र का। कहते हैं कि इंसान फट जाता है इतनी गहराई में। पता, फ़िल्म जब परत दर परत और गहरे खुलने लगी तो एक वक़्त बाद सारे किरदारों के माथे की नस की टक-टक-टक मुझे इतनी ज़ोर से सुनाई दे रही थी कानों में गूँजती हुई कि लगा सब फट जाएगा किसी प्रेशर कुकर की तरह।

शकुन की खासियत है कि वो अपने पात्रों के चारों और फैली सारी चीज़ों से दबाव का ऐसा कसा हुआ घेरा बनाते हैं जिसमें उनके किरदार अपने अपने बोइलिंग पॉइंट पर उबलते हुए एक दूसरे से बहुत बुरी तरह से टकराते हैं। तुम कभी देखना की उनके पात्र झगड़ते वक़्त कितना ज़्यादा एक दूसरे से physically interact करते हैं। भीतर बहुत चुभने वाली बातें बोलते हैं तो किस कदर एक दूसरे के घेरे को invade करते हैं। वो ऑफिस की डील वाला पूरा सीक्वेंस मेरा बहुत ज़्यादा फेवरेट है इस फ़िल्म का और वो पार्किंग लॉट की लड़ाई वाला भी। या फ़िर ‘कपूर एंड संस’ में वो बर्थडे पार्टी की लड़ाई वाला सीक्वेंस। They are brilliantly executed with such such organic tension and pressure which builds up like anything and then fucking explodes!!

मैं सबसे फ़िल्म देखने के बाद के बाद कहती रही, भाई ये रोमैंटिक फ़िल्म नहीं है बल्कि हॉरर फिल्म है। मेरे टाइप वाला हॉरर। रियल लाइफ हॉरर। जो हम सब के जीवन का हिस्सा है। तुम समझ रहे हो ना हॉरर शब्द से मेरा मतलब? ज़ैन से पूछना, वो अपने ही झूठों से छिली अपनी पीठ दिखायेगा। अलीशा से पूछना, वो छत पर घूमता हुआ पँखा दिखाएगी और बहुत से अनआंसर्ड कॉल्स। पता, अलीशा को जब अपने बचपन का पुराना वीडियो देखकर अपनी माँ की लटकती देह अचानक याद आती है और जिस तरह से वो चुप चाप किचन की स्लैब का सहारा लेकर खड़ी हो जाती है, आँख बंद करती है, साँस लेती है और एक गोली रख लेती है मुँह में.. मुझे लगा कि यह तो मैंने जिया है। मन में आया तुम क्या करोगे जब जो नहीं रहे, जिन्हें पीछे छोड़कर कर जीवन तुम्हें अपने साथ बहुत आगे ले आया वो अचानक से तुमसे आकर चिपक जाए; किसी प्रेत की तरह अपने जिए की सारी यादों के साथ लद जाए तुम्हारे कँधों और गर्दन पे? अलीशा जीवन भर भागती रही इस प्रेत से, लड़ती रही कि नहीं बनना इसके जैसा। और पाती रही हर बार खुद को उन्हीं जूतों में और गहरे धँसता हुआ।

“If we let go of our past, then maybe it’ll let go of us too.”

टीआ अंत में अलीशा से कहती है कि शायद हम अपने परिवार के एक लूप में फँसे हैं। क्या हम इससे अलग होना चुन नहीं सकते? और ठीक तभी उनके सामने आ खड़ा होता है एक और प्रेत। बीते हुए का। जिससे अलीशा कभी समुद्र की सैर करते हुए टकराई थी। जो उसका पीछा करते करते यहाँ आ पहुँचा था। असल में वो प्रेत नहीं, प्रेत की शक्ल में समुद्र के सबसे पुराने पानी से आया सबसे बूढ़ा प्रश्न था जिसकी कहानी शायद अलीशा की माँ ने उसे कभी सुनाई होगी सपने में। वो शकुन का प्रश्न था। अपने पात्रों से, हम सब से। वो सबसे आखरी रिप्पल था, लूप का आखरी टुकड़ा था। वो दुनिया का सबसे बूढ़ा भूत था!

ज़ैन जब अलीशा से मिला तो कहता था कि हमें बस अलग चुनाव करने होंगे खुद को बचाने के लिए। लेकिन जिन चुनावों को तुमने नहीं चुना उनकी खुद पर पकड़, उससे कैसे छूटोगे तुम? विरासत में हमें अपने परिवार से अलीबाग या नासिक की ज़मीन नहीं, उनके किए चुनाव मिलते हैं।

यह फ़िल्म देखना। इसमें बात गहराईयों की होगी चारों तरफ़ और तुम पाओगे की तुम्हारा कंठ अथाह सूखा है काँटों से छिला हुआ। सुनो, जो गोता लगाते हैं समुद्र में बहुत गहरे उनका कंठ जब सूखता है तो वो कौनसा पानी पीते हैं? क्या गोताखोर असल में किसी बहुत पुरानी प्यास से मरते हैं?

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