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Eugene Ionesco’s The Chairs और धोखा | एक पत्र

Eugene Ionesco's The Chairs | EkChaupal

The Chairs एक नाटक है। Eugene Ionesco ने इसे 1952 मे लिखा था originally French में। ये नाटक Absurdist Theatre और Existentialism के इर्द गिर्द घूमता है। और पढ़ने के लिए ये रहा Wikipedia का लिंक – Eugene Ionesco’s The Chairs

Eugene Ionesco का नाटक The Chairs पढ़ा सखी।

ऐसा लगा धोखा दिया हो उन्होंने अंत में। पढ़ने के बाद चुप रहा बहुत देर तक। आखिरी के पलो में ऐसा लगा जैसे बहुत कुछ हाथ आया था और एक दम से छूट गया। जीवन के इतना समीप। ऐसा लगा जैसे Godot एक बार फिर आने का वादा करके चला गया और Ionesco वो बच्चा हैं जो पहले बताने आए थे कि Godot आएगा पर फिर झूठ निकला।

एक बूढ़ा जोड़ा है। बिखरा सा। अधूरा सा। अपने पुराने दिनों को याद करता हुआ। वो इंतजार करते हैं बहुत से लोगों का। बूढ़े के पास सारी दुनिया के लिए एक मैसेज है। कुछ ऐसा जिसे उसने पूरे जीवन समझा है, जिससे सब बदल सकता है। उसके कंधों पर उसके ज्ञान की जिम्मेदारी है।

लोग आते हैं। जैसे कि लोग होते हैं, अदृश्य। पर अपना प्रभाव के साथ, वो आते हैं। पूरी दुनिया के लोग असल में ठोस नहीं हैं, बस एक असीम दवाब है अदृश्य जिसे महसूस किया जा सकता है। असल में किसी की identity है क्या? बूढ़ा जोड़ा बात करता है, react करता है। एक के बाद एक आते हैं, इतना कि पूरा मंच भर जाता है। बूढ़ा बूढ़ी एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं। कुछ नहीं है पर इतना कुछ है कि एक दूसरे को सुन नहीं पाते। पैर रखने की जगह नहीं। अदृश्य की भीड़ दोनों के बीच। तभी सम्राट आता है। बूढ़ा बहुत खुश है कि उसका मैसेज सुनने कोई आया है। जगह और भर्ती है। कुर्सियां ही कुर्सियां। कुर्सियों पर अदृश्य लोग जो सिर्फ मुझे दिख रहे हैं। जीवंत। मेरे लिए कुर्सियां भरी हैं। बूढ़े जोड़े को एक दूसरे से अलग करने में मेरा अपना दिमाग भी शामिल है।

और फिर आता है orator, जिसका इंतजार बूढ़ा कबसे कर रहा है। ओरेटर के पास बूढ़े का मैसेज है जो वो दुनिया को सुनाना चाहता है। जीवन का रहस्य। जीवन का अर्थ, जिसके बाद सब बदल जाएगा। बूढ़े का नाम इतिहास में लिखा जायेगा।

Waiting For Godot | Play | Game of forever and always

बूढ़ा अपने काम की जिम्मेदारी देकर वहां से चला जाता है। मेरी नजरें कुर्सियों पर बैठी अदृश्य जनता से उठकर ठोस ऑरेटर पर जाती हैं जिसके पास जवाब है, जीवन का। मैं पूरी आशा से उसे देखता हूं। महसूस होता है कि मैं उस मैसेज के सामने कुछ नहीं। अदृश्य हूं। कुर्सी पर बैठा हुआ। हाथ आगे करके orator को छूने का मन करता है कि ये बताएगा जीवन का रहस्य। और धोखा…

ऐसा धोखा जिसकी कल्पना नहीं की थी। ये Godot के ना आने से ज्यादा तकलीफदेह है। अगर Godot ऐसा निकला तो? इससे बेहतर तो ये होता Godot आता ही नहीं। और उस धोखे के तुरंत बाद सुनाई पड़ती है खाली पड़ी अदृश्य कुर्सियों की हंसी। वो सब मिलकर मेरी खिल्ली उड़ा रहे हैं।

खाली मंच पर अब सिर्फ कुर्सियां हैं। फर्श पर पड़े खुशी के कागजी चमकीले टुकड़े हैं और वो सब मुझ पर हंस रहे हैं कि जीवन का अर्थ समझने आए थे? मैं मंच पर नहीं हूं, वो कुर्सियां मेरी खिल्ली, मेरे सवाल और मेरे जवाब की आशा की खिल्ली उड़ाने के लिए रखी हैं। वो जिंदा हैं। बूढ़ा सही था, इन कुर्सियों पर वो सब लोग बैठे हैं जिन्होंने सवालों की खिल्लियां उड़ाई। मुझे बूढ़े को रोक लेना चाहिए था। मैंने नहीं रोका ये सोचकर कि इसका मैसेज तो मेरे पास है। पर कहां से लाऊं वो भाषा जो मुझे उसका मैसेज समझा सके।

धोखा किसने दिया है? बूढ़े ने, उस orator ने या फिर मेरी भाषा की कमी ने? और मेरे आस पास की अदृश्य कुर्सियां? वो चुप हैं, मुझ पर हंसती हुई।

हम सारा जीवन Godot का इंतजार करते हैं। पर सोचते हैं क्या कि godot आया और उसकी भाषा हम समझ नहीं पाए तो? तब क्या? या फिर godot गूंगा बहरा निकला तो?

तुम बस एक कुर्सी बन कर रह जाते हो। जिसका कोई अस्तित्व नहीं। बाकी कुर्सियों की हंसी में शामिल जिससे इस दुख से बच सको।

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