– सुनो!!
– हाँ, बोलो।
– एक बहुत सुंदर किताब पढ़े हैं। दिमाग में इतने विस्फ़ोट हुए हैं कि पूछो मत। मतलब पूछो। खूब पूछो। बतियाना है उसपे।
– गीत चतुर्वेदी की ‘अधूरी चीजों का देवता’ पढ़े हो ना?
– तुमको कैसे मालूम!!
– ऐसे सवाल पूछोगे तो कुट जाओगे। अच्छा सबसे पहले गीत चतुर्वेदी की कुछ खास बातें जो किताब पढ़ते हुए समझ आईं –
– उन्हें भाषाओं का बहुत ज्ञान है। खासकर संस्कृत और हिंदी। ज्ञान भी ऐसा की हर शब्द के एक से अधिक अर्थ उन्हें मालूम है या उन्होंने खुद निकाले हैं जिससे वो कोई तीसरा ही नया अर्थ हमें दे देते हैं।
– उनके पास पौराणिक कथाओं का बहुत बड़ा भंडार है। ग्रीक और इंडियन माइथोलॉजी की कथाओं का वो खूब इस्तेमाल करते हैं वो अपनी बात कहने के लिए। वो कहानी के अर्थ में अपनी बात पिरोना बखूबी जानते हैं।
– उनके पास सच मे एक कवि की तीसरी आँख है जैसा कि दुन्या मिखाइल ने कहा था। उनके लेख एक अलग ही तीसरी दृष्टि प्रदान करते हैं अदृश्य में.. अमूर्त में। मैंने यह जादू अपनी आँखों के आगे होता हुआ देखा है। तुम्हें लगेगा कि वो तीन अलग बात तीन अलग कहानियों के ज़रिए कह रहे और शायद लेख भटक गया है लेकिन अंत में सब कुछ आपस में जुड़ने लगता और तुम्हारे पास वो रखा होता जो शीर्षक ने अपने भीतर छुपा रखा था।
अब बतियाओ।
– तो पहला निबंध है ‘बिल्लियाँ’– हमको लगता है उसके भीतर कुछ है पर हमें मिल नहीं रहा सिवाय इसके कि जिसके बारे में सोचा कि ये पहले मरेगा (बिल्ला) वो जीता रहा। जो सबके दिलों की धड़कन था वो पहले बीत गया। सुख जल्दी बीत जाता है क्या? और वो पल जो हमें लगते हैं कि पड़े रहेंगे कमजोर से, उपेक्षित से, जिनसे कोई लेना देना नहीं वो पड़े रहते हैं हमारे समीप, हमसे कुछ नहीं मांगते पर अंत तक बचे रहते हैं। जिन पलों को कमजोर समझो कि ये बेकार हैं, अभी खत्म हो जाएंगे सुख के सामने वो बचे रहते हैं। क्यूंकि सुख हर कोई देख लेता है।
– निबंध के भीतर दादी का निरंतर विरोधाभास है। दादी के भीतर एक अजीब बेचारापन है। उन्हें पसन्द है बिल्लियाँ खूब.. लेकिन वो यह जताना नहीं चाहती.. बिल्लियों को हम कभी ठीक से प्रेम जताना सीख ही नहीं पाए हैं। खुलकर कभी ठीक से प्रेम नहीं दिया उन्हें.. हमेशा एक नकारात्मकता जोड़ी है उनके साथ जो हमारे प्रेम को सीमित रखती है। शायद इसलिए कि बिल्लियाँ एक तरह से बहुत आत्मनिर्भर या यूँ कह लो अपने खुद के एकांत में सहज होती है। वो प्रेम देती है लेकिन उसे अर्जित करना होता है.. साथ ही साथ उनके प्रेम में तुम्हें उनके एकांत को समझना, उसे सहेजना पड़ता है। तुम उनके निजी घेरे में बहुत भीतर तक घुसने जाओगे वो तुम्हे बाहर कर देंगी। वो तुम्हें खुद को भी अपने एकांत में सहज होना.. उसे सही रूप से सहेजना सिखाती है।
– ऐसे नहीं सोचा था।
– और तो और बिल्लियाँ हॉवर्ड रोआर्क (Ayn Rand की किताब The Fountainhead का एक पात्र) जैसी लगती है मुझे तो कभी कभी.. अगर तुम उनकी ही तरह सहज हो अपने होने में.. अपने एकांत में.. (अपने कार्य या अपने जीवन से प्रेम करते हो) तो वो शायद तुम्हारे ज़्यादा निकट होंगी मन से।
– हम बिल्ली हैं?
– क्या पता? होंगे शायद। बिल्ली बिल्ली का होना पहचान लेती होंगी ना?
– हां। शायद।
(कुछ देर चुप होता है। भाव ऐसे हैं कि इस चुप में अपने भीतर बहुत गहरे कुछ टटोल रहा है। क्या कोई सवाल होगा? कैसा सवाल? सवाल जैसा सवाल? )
– सुनो.. सुख जल्दी बीत जाता है क्या?
(कुछ देर अपनी हथेलियों को टटोलती हुई नीचे देखकर सोचती है। फ़िर थोड़ी देर में बोलती है।)
– क्या पता। कुछ हद तक शायद। लेकिन बीतता तो समय है ना? बाकी सब का बीतना तो एक आभास मात्र है। पर बात ठीक उल्टी भी तो हो सकती है कि समय ठहरा हुआ रहता है और हम बीतते जाते हैं सुख दुख इन सब से होते हुए जो कि किसी स्टेशन जैसे हैं।
(दोनों मुस्कुराते हैं। दोनों के हाथों में एक एक फूल उग आया है। दोनों उसे हल्के से सहलाते हैं और फूल की खुश्बू उनके होठों पर नाचने लगती है।)
– वैसे वो बात तुम अच्छी कहे थे कमज़ोर क्षणों वाली। जो लगता है कि बहुत कमजोर है, हम हमेशा उसकी उपेक्षा करते हैं। हमारी यह एक आदत भी रही है कि भावुकता को अक्सर हम कमजोरी मान लेते हैं.. और अंत में हम पाते हैं कि हम आज भी सबसे ज़्यादा अपने जीवन में उन्हीं क्षणों से प्रभावित है जिनके बीत जाने के बाद हमने कहा था कि वो भावुकता भरे क्षण थे बस.. जिनमें हम हल्के कमज़ोर पड़ गये थे और कुछ नहीं।
– जिनमें हम कुछ खास लोगों के पास दुबक कर पहुंच गए थे सहारा पाने और हमें मिल भी गया था।
– जिनके पास अपने होने में सहजता आती हो।
(दोनों अपनी हथेली में उगे फूलों को फ़िर से देखते हैं और फ़िर एक साथ एक ही सवाल पूछते हैं।)
– परिभाषा की परिभाषा क्या होती है??
(दोनों मुस्कुरातें हैं। एक ही बात साथ कहने पर एक दूसरे की बाजु पर ज़ोर की च्यूंटी काटते हैं। यह उनका पुराना खेल था। हर बात पर नियम की तरह उन्होंने अलग अलग खेल तय कर रखे थे। इसलिए वो जब भी कोई नियम मानते तो उसे किसी खेल की तरह खेलते। नियम बहुत ज़रूरी है जीवन में किसी बूढ़े ने कहा था। दोनों कराहते हुए अपनी बाजू को मसलते हैं और खूब ज़ोर से हँसते हैं। )
– अच्छा, क्या तुम्हें लगता है कि वो जो लाइन है – “तुम बिल्ली से प्रेम करोगे तो वो बदले में खरोंच ही देगी”। इसके भीतर और भी कुछ है? जिसे हम पकड़ नहीं पा रहे हैं?
– बिल्लियों में मैंने अपने प्रति.. अपने निज.. अपनी इच्छा के प्रति एक अजीब सा बचाव देखा है हमेशा। एक तरह से हम इंसान भी होते हैं ऐसे। तो खरोंचे आना लाज़मी है ना। हर रिश्ते में क्या नहीं आती? खासकर की उनमें जिनमें आप अपने आप को.. अपने निज को बहुत बचा लेना चाहते हो हर वक़्त.. भले ही वो ज़रूरी हो या नहीं.. दूसरे को खरोंचे आएगी ना?
– विस्फोट!!
– है ना सुंदर!
– बहुत।
– लेकिन इससे भी ज़्यादा सुंदर मुझे जो बात लगी वो ये की एक निबंध में गीत चतुर्वेदी ने स्मृति और विस्मृति को लेकर बिल्कुल नया ही दृष्टिकोण दिया है.. वो सच में विस्फोट है! हम अभी तक भी सोच कर कुलबुला जाते हैं खुशी से। विस्मृति यानी मृत्यु!! इतना सरल!
– U G Krishnamurti ने यही कहा था जब पास्ट memory से दूरी बन जाएंगी तो वो क्लीनिकल मृत्यु होगी…
– वही बात इन्होंने भी कही की अगर मृत्यु के बाद भी स्मृति रह जाये अतीत की और बस देह नई हो तो वो मृत्यु नहीं होगी। विस्मृति ही असल मायनों में मृत्यु है। नींद मृत्यु समान है अगर सपने ना हो तो.. सपने जीवन से जोड़े रखते हैं नींद को।
(दोनों अपनी अपनी हथेली में उगे फूल को सहलाते हैं। फूल हवा में लहराता है। उसकी खुशबू उनके होठों पर नाचती है। वो खुशबू को तितली मान उसे पकड़ने का खेल खेलते हैं। अंत में उनकी उँगलियों में तितली का रँग छूट जाता है। नीला नीला। दोनों उसे छूते हैं और मुस्कुराते हैं।)
– तुम्हें मालूम कि मुझे मानव कौल की कितनी बातें मिली इस किताब के लेखों में।
– कौल की बातें..? बताओ कौन सी??!!!
– गीत कहते हैं कि असल में हमें न अंत पता होता है ना आदि.. कुछ चीज़ें हमें गणित के सवालों की तरह मान लेनी होती है बस।
– पीले स्कूटर वाला आदमी!! (मानव कौल का नाटक)
(एक आदमी पीला स्कूटर चलाते हुए उनके सामने से गुज़रता है। वो दोनों उसका गुज़रना देखते रहते हैं बच्चों सी कौतूहल भरी निगाहों से। कुछ नहीं घटा सा कुछ उनके भीतर बहुत सघनता से घटता है और फ़िर वो दोनों वापिस आ जाते हैं अपनी बात पर। )
– अच्छा वो आखिरी लेख जो था अधूरे होने पर, जिसमें उन्होंने किताब के शीर्षक के पीछे की कहानी बताई वो कितना कमाल है ना? गीत कहते हैं कि यदि तुम अधूरे हो (जैसे कि इस संसार में हर एक चीज़) और तुम स्व की खोज में निकले हो तो फ़िर पूर्णता के पीछे काहे भाग रहे हो। स्व अगर अधूरा है तो अधूरेपन को तलाशो तभी तो असल मायनों में स्व की तलाश होगी।
– पूर्णता को खोजने में तुम अपने स्व के अधूरे होने को भी नकार रहे हो। अधूरा तो है ही, तुम्हें बाकी का अधूरा ढूंढना है।
– लेकिन अधूरे में अधूरा मिला दिया तो भी अधूरा ही तो मिलेगा। और अधूरे में से अधूरा घटा तो भी अधूरा ही तो रहेगा।
– समझा नहीं।
– अरे मतलब तुमने कहा कि बाकी का अधूरा ढूंढना है तो वो ढ़ूंढकर भी तो अधूरा ही रहेगा ना सब। बात यह है कि यह दौड़ क्यूँ? किस लिए? असल में दौड़ के अंत में तुमको यही कहना है कि अधूरे हैं हम। यही यात्रा है। यही खोजना था। बाहर के बहुत से अधूरे नहीं खोजने हैं यह सोचकर कि वो तुम्हारे अधूरेपन को पूरा कर सके। बस इतना ही समझना था कि तुम अधूरे हो और यह खुद से कहना था।
UG Krishnamurti भी तो यही कहते हैं कि तुम यह पूरी यात्रा करते हो स्व को पाने की सिर्फ़ यह समझने के लिए की असल में कोई स्व है ही नहीं खोजने के लिए।
– This is interesting. मैं सोच रहा था कि अधूरे हैं तो बाकी का अधूरा ढूंढना है। पर वो तब होगा जब खुद से कहोगे कि अधूरे हैं यानी आधे पूरे तो बाकी का अधूरा ढूंढना है। जबकि हम पूर्णता खोज रहे हैं.. अब समझ आया। मैं लूप में था। (हँसता है हल्का सा)
– तुम्हें तो बस एकनॉलेज करना है अपने भीतर के अधूरे को क्योंकि हम भ्रम में जीते हैं कि यह पूर्ण किया जा सकता है। जबकि पूर्ण और अपूर्ण एक ही तो है।
– विस्फोट! विस्फोट!
– और एक बात मुक्तिधाम (अभिषेक मजुमदार का नाटक) की जो मेरे भीतर चिपकी पड़ी है। अंत में जितना तुम मुक्ति के करीब जाते हो.. स्व की खोज में.. तुम्हे लगता है शांति मिलेगी..पूर्णता मिलेगी..लेकिन अंत मे जो निरन्तर रहता है वो है सिर्फ़ संदेह।
तुम्हें लगता है जीवन भर कि दो चीज़ें अलग है.. अँधेरा और रोशनी अलग अलग हैं.. लेकिन अंत में तुम देखते हो कि दोनों एक ही जगह से आ रहे हैं। दोनों एक ही है। हर वो चीज़ जो तुम्हें पहले विपरीत लगती थी तुम्हें एहसास होता है कि सब कुछ एक वृत्त (गोल) में है.. एक जैसे। अंत में सिर्फ़ कंट्राडिक्शन रह जाता है।
– विस्फोट! क्यूंकि हमने परिभाषा कभी समझी ही नहीं!
– काफ़्का, मुझे लगता है यही तो खोज लिए थे। सुनो, ये पढ़ना – The Castle | Have We Reached There, Yet! । ये काफ्का का उपन्यास है। बात ज्यादा बेहतर समझ आएगी।
– Beckett भी। तुम ये पढ़ना – Samuel Beckett’s The Complete Dramatic Works | Truth Beyond Words
– गीत कितना कंट्राडिक्शन देते हैं अपने लिखे में.. ug भी.. वर्जिनिया वुल्फ भी.. काफ़्का भी।
– क्यूंकि chaos से चीजें originate होती हैं जो सरलता की तरफ जाती हैं पर सरल के लिए टूटना जरूरी है जो chaos की देन है। दोनो एक दूसरे को जन्म देते रहते हैं।
Stephen Hawking वाली theory- the universe is constantly trying to settle down towards chaos. To maintain its entropy.
– बिल्कुल! बिल्कुल! बिल्कुल! विस्फ़ोट!
– For maintaining entropy constantly creates chaos and then again settles it down.
– Entropy का डायरेक्शन बदल नही सकते। it will always increase. The disorder will increase. In the end, the disorder is all that is there.
“It’s a journey from one disorder to another.”
– फ़िर से विस्फ़ोट! भयंकर वाला! कितना सुंदर है यह!
– बहुत सुंदर!
( दोनों बहुत खुशी वाला एक खेल खेलते हैं। अपनी हथेलियों को मुट्ठी में बाँधते हैं और आँख बंद कर लेते हैं। खेल में दोनों खुद को पहाड़ की चोटी पर पाते हैं, एक लंबी गहरी साँस भीतर खींचते हैं और मुट्ठी खोल देते हैं। बगल में टेलीफोन की एक घँटी बहुत देर तक बजती है लेकिन दोनों में से कोई फ़ोन नहीं उठाता।)
– भुजंग!
– भुजंग।
– गहरा गोता लगाना होगा। मिलते हैं कल।
– मिलते हैं कल।
(दोनों वहीं अपनी जगह पर सर रख कर सो जाते हैं। परिधि में कुछ हरकत होती है। फ़िर सब शांत हो जाता है। अँधेरा छाता है। परिधि उनकी साँसें सुन रही है।)
संवाद से जाहिर हो रहा है कि इन दोनों को किताब बहुत पसंद आई है। कुछ अच्छा पढ़ा है। तो अगर कुछ अच्छा पढ़ना है तो गीत चतुर्वेदी की ‘अधूरी चीजों का देवता पढ़िए’। किताब रूख पब्लिकैशन और Amazon, दोनों पर available है।
और चीजें पढ़ने का मन है?
Geet Chaturvedi – Pink Slip Daddy | 3 in One Combo
Waiting For Godot | Play | Game of forever and always
समानांतर दूरी पर पास पास बैठे हुए दो बिंबों के बीच की जगह के बारे में क्या कुछ भी ठीक से कहा जा सकता है? उस बीच की जगह को किन पैमानों पर नापा जा सकता है? दूरी के या नज़दीकी के? क्या वो बीच की जगह परिधि है? परिधि.. जीवन की? परिधि पर बैठे पँछी जीवन को किस नज़र से देखते होंगे? क्या परिधि ही वो जगह है जहाँ सारे नज़रिए एक साथ आ जाते हैं.. जहाँ सच और झूठ के पत्थर अपना रँग खो देते हैं? क्या परिधि पर सब कुछ सम्भव है और कुछ भी नहीं? और अंत में.. यह सारे सँवाद.. क्या यह परिधि पर हमेशा से ही पड़े थे और इन्हें बस उन दो पंछियो ने अपनी चोंच से चुग लिया था? क्या परिधि ही सँवाद है?
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