निठल्ले की डायरी – हरिशंकर परसाई | निठल्ले – निठल्ले में फ़र्क है!

निठल्ले की डायरी

आत्मविश्वास धन का होता है, विद्या का भी और बल का भी, पर सबसे बड़ा आत्मविश्वास नासमझी का होता है।

हरिशंकर परसाई

“मगर निठल्ले – निठल्ले में फ़र्क है ” परसाई जी के यह शब्द कितना सटीक परिचय हैं इस किताब के लिए। नाम है “निठल्ले की डायरी”। शुरुआत होती है “निठल्लेपन का दर्शन” से जो पहले तो बतलाता है भिन्न भिन्न प्रकार के निठल्लों के बारे में और फिर बताता है कि जिस निठल्ले की डायरी यह है वह निठल्ला कैसे बना। एक दिन बैठे बैठे इस निठल्ले ने संसार के बारे में जितना अच्छा सोचा जा सकता था सब सोच लिया..उसने सबकी पीड़ाएँ हर ली और सबके मन की मुराद पूरी कर दी। अब उसके पास करने को कुछ ना बचा था सो उसने ठान लिया कि अब वो सबके कार्य में दखल देगा और किसी का तो भला करके ही मानेगा।

बस फ़िर यहीं से शुरू होता है परसाई जी की कल्पना और व्यंग्य के मेलजोल का यह शानदार सफ़र। पहली बात तो जो मैं कब से कहना चाह रही थी वो यह कि क्या गज़ब कल्पना है इस आदमी की यार! मतलब क्या अजब-गजब किरदार बनाए हैं इन्होंने और इनका व्यंग्य जो इतना सटीक बैठता है हर जगह की भाईसाहब मज़ा आ जाता है पढ़ के। मतलब वो एक गुदगुदी सी होती है ना पूरे शरीर में जब कुछ शानदार पढ़ने को मिलता है और फिर आपको पढ़ने के बाद लगता है कि यार यह जो लिखा हुआ है यह तो आज भी इतने सालों बाद ठीक वैसे के वैसा सटीक फिट बैठता है हमारे समाज पर जैसा उस समय था।

जितने जनता के सेवक हैं, सबके घर भरे हुए हैं? क्यों? क्यों माल बटोर रखा है उन्होंने? इसीलिए की अपने पास धन होगा, तभी यह समझ में आएगा कि धन का क्या महत्व है और तभी निर्धन जनता की हालत सुधारने की स्फूर्ति पैदा होगी।

हरिशंकर परसाई

सारे अतरंगी किरदार ऐसे लगते हैं जैसे असली के लोगों को इनसाइड-आउट करके किसी ने लिख दिया है और बस यही व्यंग्य है कि जो तुम अंदर से हो उसे ही बाहर लाकर तुम्हारे सामने रख दिया है। तुम जो सरकारी दफ्तरों में फाइलों और नोटों की आड़ में असल में कहना चाहते हो, जो नेता लोग असल में कहना चाहते हैं भाषण देते वक्त, जो तुम समाज में अपने व्यवहार से असल में कहना चाहते हो– बस यही सब तुम यहाँ पर खुले में कह रहे हो इसीलिये सब इनसाइड-आउट है।

अच्छा चलो कुछ किरदारों से मिलो – पहले रामसिंह से। रामसिंह रोज़ अपने दोस्त के घर जाता है और उसे भरपूर गालियाँ देता है एक घँटे तक। वो सभी के साथ बुरी तरह से बर्ताव करता है और कुछ पूछो तो कह देता है कि मैं सीख रहा हूँ। क्या सीख रहा है वो यूँ लोगों को गाली देकर और उनसे पैसे छीनकर? उसका दोस्त कहता है कि वो उसे ट्रेनिंग दे रहा है.. एक सच्चा पुलिसवाला बनने की। (रामसिंह को ट्रेनिंग लेनी पड़ी, बाकियों को पुलिस की वर्दी मिलते ही यह सब आ जाता है।)

जब तक पुरुष नारी को यह ना बता दे कि मैं जंगली जानवर भी हूँ, तब तक वह समझता है कि मेरी पूरी शख्सियत नहीं उभरी।

हरिशंकर परसाई

अब कहानी सुनो एक “सुलझे हुए आदमी” की जिसने अपने जीवन के हर कठिन सवाल का जवाब ढूँढ लिया है। अगर उससे कोई यह कह दे कि पेनिसिलिन की खोज पश्चिम में की गई थी तो वह कह देगा की नहीं उसकी खोज तो महाभारत के युद्ध के समय ही दस हज़ार साल पहले भारत में कर ली गई थी वरना भीष्म पितामह घावों से क्षत-विक्षत होने के बावजूद भी इक्यावन दिनों तक जीवित कैसे रहते अगर उन्हें पेनिसिलिन ना दिया गया होता। इनका तो यह भी मानना है भगवान श्रीराम एक महान “बोटनिस्ट” थे और अहिल्या एक “फॉसिल” थीं। रामचन्द्र ने ही तो अहिल्या “फॉसिल” को जीवित कर स्त्री बना दिया इसीलिए हम विश्व गुरु हैं और कोई देश हमें कुछ नहीं सीखा सकता। (पता नहीं क्यूँ मुझे ऐसे बहुत से लोग दिखाई पड़ते हैं आजकल, क्या यह भी परसाई जी के इस किरदार के बड़े भक्त हैं? इनकी भक्ति को मेरा शत शत नमन।)

अब बारी एक स्वामीजी से मिलने की जिनसे मुलाक़ात बड़ी ज़रूरी है। स्वामीजी एक “गोभक्त” हैं। निठल्ले की इनसे बातचीत में पता चलता है कि यूँ तो यह गौ को माता का दर्जा देते हैं और उसकी रक्षा के लिए आंदोलन करने जा रहे हैं पर खुद भैंस का दूध पीते हैं और अगर कोई गौ इनके घर इनका अनाज खाने को आ जाए तो उसे लाठी मार के भगा देने में मानते हैं। इन्हें गौ की रक्षा करनी है कसाइयों से पर फिर बतलाते हैं कि गोरक्षक खुद गौ को कसाइयों के पास बेचते हैं क्योंकि गाय व्यर्थ खाती है और उसे बेचने से पैसा मिल जाता है। अगर इनसे कोई यह तर्क कर दे कि दूसरे देशों में जहाँ गौ को नहीं पूजा जाता वहाँ गौ की दशा भारत से अच्छी है तो कह देते हैं कि तर्क अच्छा है पर हमारी गायें उनकी गायों से भिन्न हैं। हमारी गायें वह हैं जिनकी सुरक्षा की चिंता हमें कोई भी चुनाव के निकट आते ही होने लग जाती है और जिनका उपयोग हम जनता को आर्थिक क्रांति से बचाकर दंगो में धकेलने के लिए करते हैं।(देखा सब इनसाइड-आउट लग रहा है ना? जो तुम कहना चाह रहे थे वही कहा जा रहा है!)

"पर स्वामीजी, यह जैसे पूजा है कि गाय हड्डी का ढाँचा लिये हुए मुहल्ले में कागज़ और कपड़े कहती फिरती है और जगह-जगह पिटती है!"

"बच्चा, यह कोई अचरज की बात नहीं है। हमारे यहाँ जिसकी पूजा की जाती है, उसकी दुर्दशा कर डालते हैं। यही सच्ची पूजा है। नारी को भी हमने पूज्य माना और उसकी जैसी दुर्दशा की, सो तुम जानते ही हो!"

"स्वामीजी, दूसरे देशों में लोग गाय की पूजा नहीं करते, पर उसे अच्छी तरह रखते हैं और वह खूब दूध देती है।"

"बच्चा, दूसरे देशों की बात छोड़ो। हम उनसे बहुत ऊँचे हैं। दूसरे देशों में गाय दूध के उपयोग के लिए होती है; हमारे यहाँ वह दंगा करने और आंदोलन करने के लिए होती है। हमारी गाय और गायों से भिन्न है।"

-हरिशंकर परसाई

चलो जाते जाते एक छोटी सी भेंट उनसे भी कर ली जाए जिनकी “कोई सुनने वाला नहीं है!”। इनका प्रमोशन अटका पड़ा है दफ़्तर में जिसकी वजह से इनके जीवन में चहुँओर अंधेर छाया पड़ा है। कहने को तो इनकी कोई सुनने वाला नहीं है पर यह सबको पकड़-पकड़कर अपनी सुनाते हैं। पहले प्रमोशन नहीं था तो परेशानी थी अब प्रमोशन मिल गया तो परेशानी है की जिले में फेंक दिया, फ़िर पता चला कि हेड आफिस में ही रहना है जिले में नहीं जाना तो परेशानी की जिला ही बेहतर था हेड आफिस से। इनको यह सम्पूर्ण विश्वास है कि इस संसार में हो रही हर घटना का मूल कारण इन्हें परेशान करना ही है, यह हमेशा अन्याय का शिकार होते हैं और इसी वजह से यह विशिष्ट हैं। (आजु बाजू देखो पहले अगर ना मिले तो आईने में देखो और अगर तब भी ना मिले तो सोशल मीडिया पर तो मिल ही जाएँगे।)

सब कुछ कितना सटीक बैठ रहा है ना आज भी जबकि इस किताब को पहली बार प्रकाशित 1968 में किया गया था। तो इसे पढ़ो क्यूँकि पहली बात तो यह की परसाई जी के लेखन के फैन हो जाओगे और दूसरी यह कि अगर तुम्हें सच में व्यंग्य समझ आ गया तो कुछ अच्छा सोचने को मिलेगा और दिमाग का दायरा बढ़ेगा।

बुजुर्ग का खस ‘प्रिविलेज’ (विशेष हक) है कि किसी भी औरत को घूर सकता है, और कोई बुरा नहीं मानता। सफेदी की आड़ में हम बूढ़े वह सब कर सकते हैं, जिसे करने की तुम जवानों की भी हिम्मत नही होती।

हरिशंकर परसाई

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Some More Quotes

बूढ़ा सियार बोला, “ये बड़े काम के हैं। आपका सारा प्रचार तो ये ही करेंगे। इन्हीं के बल पर आप चुनाव लड़ेंगे। यह पीला वाला बड़ा विद्वान है, विचारक है, कवि भी है, लेखक भी। यह नीला सियार नेता और पत्रकार है। और यह हरा धर्मगुरु है।”

हरिशंकर परसाई
"स्वामीजी, हर चुनाव के पहले गोभक्ति क्यों जोर पकड़ती है? इस मौसम में कोई खास बात है क्या?"

"बच्चा, जब चुनाव आता है, तब हमारे नेताओं को गोमाता सपने में दर्शन देती है। कहती है– बेटो, चुनाव आ रहा है। अब मेरी रक्षा का आंदोलन करो। देश की जनता अभी मूर्ख है। मेरी रक्षा का आंदोलन करके वोट ले लो। बच्चा, कुछ राजनीतिक दलों को गोमाता वोट दिलाती है, जैसे एक दल को बैल वोट दिलाते हैं। तो ये नेता एकदम आंदोलन छेड़ देते हैं और हम साधुओं को उसमें शामिल कर लेते हैं।"

-हरिशंकर परसाई

प्रेम व सौंदर्य का सारा स्टॉक कम्पनियों ने खरीद लिया है। अब ये उन्हीं के मार्फत मिल सकते हैं।

हरिशंकर परसाई

भारतीय प्रजातंत्र का यह सौभाग्य है कि यहाँ स्वतंत्रता के बाद बहुत जल्दी काफी संख्या में चमचे बन गए। इसका कारण यह है कि चमचों का निर्माण स्वतंत्रता संग्राम के जमाने से ही शुरू हो गया था। उस दौर में नेता लोग भावी चमचों को जेल भेजने की कोशिश करते थे। आंदोलन में जब ऐसा लगता कि इस बार सरकार सख्ती कम करेगी, जेल कम दिनों की होगी और वहाँ आराम भी रहेगा, तब हर बार नेता अपने ज्यादा-से-ज्यादा चमचों को जेल भेजने की कोशिश करता था। तब जेल जाने के लिए वैसी ही होड़ होती थी जैसी अब चुनाव-टिकट के लिए होती है।

हरिशंकर परसाई
देश में इस समय खीर खाने की प्रतियोगिता मची है।
जनता की आँखों पर पट्टी बँधी है, मगर अफ़सरों ने अपनी पट्टी खिसका ली है और वे खुली आँखों से खीर खा रहे हैं।
जनता कुछ नहीं कहती, बल्कि ताली बजाती है।
जो मेहनत करता है, और उत्पादन करता है, उसके हाथ में बन्दर का खिलौना दे दिया गया है, जिससे उसका मन बहलता रहे।
जो खीर खाता है, उसे स्टेनलेस स्टील के बर्तन मिलते हैं, जिनमें और खीर खाई जा सकती है।

-हरिशंकर परसाई

कुछ लोगों की अंतरात्मा बुढ़ापे तक वैसी ही रहती है, जैसी पैदा होते वक़्त थी। वे बचपन में अगर बाप का माल निस्संकोच खाते हैं, तो सारी उम्र दुनिया-भर को बाप समझकर उसका माल निस्संकोच मुफ्त खाया करते हैं।

हरिशंकर परसाई

जायदाद की जाँच होती है तो शिवशंकर( एक सरकारी बाबू) कह देते हैं– ससुराल की तरफ से मिली है। न जाने ऐसे ससुर किस कोने में रहते हैं, जो जिन्दगी-भर किस्तों में दहेज देते हैं? और वे हमेशा सरकार के कुछ महकमों के अफसरों को ही बेटी क्यों ब्याह देते हैं?

हरिशंकर परसाई

जितने जनता के सेवक हैं, सबके घर भरे हुए हैं? क्यों? क्यों माल बटोर रखा है उन्होंने? इसीलिए की अपने पास धन होगा, तभी यह समझ में आएगा कि धन का क्या महत्व है और तभी निर्धन जनता की हालत सुधारने की स्फूर्ति पैदा होगी।

हरिशंकर परसाई

नियम के कारण ही एक कुलटा कहलाती है और दूसरी पतिव्रता। कुलटा का कुल मिलाकर पुरुष-सम्पर्क पतिव्रता से कम होता है, तो भी।

हरिशंकर परसाई

Also: Letters To Felice | Franz Kafka

Aphorisms by Kafka | Truth Bombs!

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