Hamid 2018 की फिल्म है जिसके director हैं Aziz Khan. फिल्म को National और international level पर बहुत से अवॉर्ड मिले हैं। जैसे कि National Film Award for Best Child Artist और National Film Award for Best Feature Film in Urdu. Talha Arshad Reshi, रसिका दुग्गल, विकास कुमार और सुमित कौल मुख्य भूमिका में हैं।
शायद महीने भर पहले की बात है कुछ करने को मन नहीं था तो ऊब गई थी। फिर आजकल ऊब में सब जो करते हैं मैंने भी वही किया। नेटफ्लिक्स पर यूं ही स्क्रॉल करने लग गई। अचानक एक फ़िल्म के पोस्टर पर नज़र पड़ी। पोस्टर में रसिका दुगल थी एक कश्मीरी परिधान में, मैंने बिना ज्यादा सोचे प्ले बटन दबा दिया।
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कश्मीर एक ऐसा मुद्दा है जो लगभग सब भारतीयों की रुचि की सूची में होता है। सबकी रुचि के अपने अपने अलग कारण होते हैं। लेकिन एक आम सा कारण कश्मीर की खूबसूरती होता है। और खूबसूरती का एक अहम हिस्सा शुरू से ही त्रासदी रहा है। मेरी समझ में हमें कश्मीर की समझ कम है और इस नाम के इर्द गिर्द अफ़वाहों की जानकारी ज्यादा है। ऐसे में कहानी, कविता, फिल्म, नाटक या कला का कोई और माध्यम हमें एक आम कश्मीरी की मनोस्थिति के करीब ले जाती है।
‘हामिद’ एक ऐसी ही फिल्म है। फिल्म हामिद (10-12 साल का बच्चा) के नज़रिए से लिखी गई है। फिल्म की शुरुआत में हामिद के पिता ( जो नौका बनाते हैं) काम से घर को लौट रहे होते हैं तो रास्ते में उनसे कुछ जवान पूछताछ करने लगते हैं। घबराए हुए घर पहुंचते हैं तो हामिद cell की ज़िद करने लगता है। हामिद की मां, इशरत मना करती है लेकिन हामिद के अब्बू चले जाते हैं, कभी ना लौटे के लिए। और यहीं से इशरत और हामिद की कहानी आगे बढ़ती है।
फिल्म में ‘विकास कुमार’ एक अहम किरदार में है, सीआरपीएफ का एक जवान। विकास के जरिए कश्मीर में तैनात जवानों की हालात, मजबूरी और उनके हिंसक व्यवहार के पीछे छुपे भावुकता का गुण बखूबी पेश किया है। फिल्म की सबसे खास बात यही है कि यह जवानों के और आम कश्मीरी लोगों के पक्ष निष्पक्षता से सामने रखती है।
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चूंकि फिल्म एक बच्चे की नज़र से लिखी गई है तो ऐसे बहुत सारे दृश्य हैं जहां हम जैसे अधमरे सांस लेने वाले लोग अपने आंसुओं को अपने वश में नहीं कर पाएंगे। खासकर वो हिस्से जहां हामिद और विकास की बातें थोड़ी पागल सी लगती हैं लेकिन मासूमियत से दुनिया में बची अच्छाई का सबूत देती हैं।
कहानी कई बार मायूस भी कर देती है। इशरत का दुख बड़ा अजीब लगता है। अपने पति की ना मरने की ना ज़िंदा होने की कोई खबर उसकी आस को मिट्टी का घर बना देती है। उसके ऊपर एक खौफनाक चुप्पी पसर जाती है। पहले अखबार में ‘half widow’ शब्द पढ़ा था, इशरत को देखा तो ज़रा सा इसका मतलब समझ आया।
फिल्म जिहाद के नाम पर बच्चों को सिखाई जाने वाली हिंसा, अलग कश्मीर की मांग जैसे मुद्दों पर भी बात करती है। कैसे कितनी कच्ची उम्र में नादान बच्चों को मुद्दे का सिर्फ एक ही पहलू दिखाया जाता है और दूसरी तरफ़ हामिद जो अपने अब्बू की सिखाई बातों को सच मानकर ऐसे हालातों में अहिंसा का चुनाव करता है।
यह फिल्म एक अहम वार्तालाप, सेना और कश्मीरी जनता के बीच; जिसके लिए असल ज़िन्दगी में क्या तो कोशिश नहीं की जाती या अक्सर ये कोशिशें नाकामयाब होती हैं। ये फिल्म उनको ज़रूर देखनी चाहिए जो बात बात पर मारने मरने की बात करते हैं कश्मीर के नाम पर। और उनको भी जो इन दंगों की हिंसा को उचित सिद्ध करने के लिए उन दंगों के नुक़सान गिनवाते हैं। जो नेताओं के भाषणों के बीच आम लोगों के दुख दुख भूल जाते हैं।
तो अगर कुछ अच्छा और जरूरी देखना है। हामिद देखें। Hamid – Netflix link. तब तक रहिए। पढ़ते रहिए।
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ज्योति राजस्थान की रहने वाली हैं। अभी एक विद्यार्थी हैं और अपने आप को ख्वाबों का एक पुराना कंगूरा कहती हैं। और मोमोज की बड़ी शौकीन हैं।
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