अभी दो दिन पहले मैंने नीलेश मिश्रा जी द्वारा संचालित डॉ कुमार विश्वास का Slow interview देखा तो उसमें सबसे ख़ूबसूरत एक पंक्ति सुनी “ संवेदनाओं के व्यापार में संवेदनाएं धीरे धीरे कारोबार बन जाती हैं ” ।
मझे बहुत ही ख़ूबसूरत और एक दम सत्य लगी ये लाइन कि हम लोग जाने-अनजाने अपनी भावनाएं और अपनी अनुभूति को बेचने लगे हैं। हर व्यक्ति एक न एक स्तर पर ये कर रहा है – चाहे फिर वो क्रिएटिव लोग हों या हम जैसे सामान्य आदमी। कुछ हद तक ये ठीक भी है पर उसका दायरा कितना हो, ये तो तय करना होगा ना!
जैसे इसी interview में कुमार जी ने एक किस्सा बताया कि उनकी एक साथी प्रोफ़ेसर उनको हमेशा आशीर्वाद देती थीं “ वत्स भग्न हृदय भवः ”। मतलब – हमेशा दिल टूटता रहे। क्योंकि जो तकलीफ़ होगी उस से अच्छी कविता उत्पन्न होगी।
जैसे कि किसी ने कहा है- ” कला आंतरिक द्वन्द्व से उत्पन्न होती है।” अब ये आंतरिक द्वन्द्व आपका अपना हो जरूरी तो नहीं ना? सड़क पर किसी के साथ कुछ गलत होते देखकर भी आपके अंदर द्वन्द्व शुरू हो सकता है। फिर ये संवेदना किसकी हुई? और आपने उस पर कुछ लिख कर पैसे कमा लिए तो व्यापार आपके शब्दों का नहीं, आपकी संवेदना का नहीं, उस व्यक्ति की स्थिति का हुआ।
हाँ हो सकता है ये संवेदना का व्यापार ही है पर ये आपकी निजी अपनी अनुभूति है। लेकिन जब एक व्यापक स्तर पर ये होने लगे तो ये बहुत ही असामाजिक और एक असहाय सा माहौल बनने लगता है क्योंकि फिर आप हर व्यक्ति की भावनाओं को, उसकी अनुभती को बस एक व्यापारिक दृष्टि से देखने लगते है। उदाहरण के लिए हमारा मीडिया; ये थोड़ा डराबना सत्य है।
एक और बहुत सुंदर उदाहरण है “ उस बच्चे की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया जो भूखा था लेकिन उस बच्चे की तस्वीर करोड़ों में बिकी ।” आखिर में बिकी तो उस बच्चे की संवेदना ही। अंत में किया तो व्यापार ही ना! मुझे ऐसा लगता है कि हम फिर कहीं ना कहीं हर एक सवेंदना का व्यापार करने लगते है। जो शायद हमारा काम नहीं होना चाहिए।
जैसे की नसीरुद्दीन शाह ने कहा है – ” एक एक्टर या आर्टिस्ट के तौर पर आपका काम सिर्फ चिट्ठी पहुँचाना है। ऐसा कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर रहे हो आप। आपका काम तालियां बटोरना नहीं है; लोगों को असल जीवन की हक़ीक़त दिखाना है।”
इसी पर एक बहुत बढ़िया बात केविन स्पेसी ने कही है – “हम असल में फिल्म में वही ढूंढते है, वैसा ही जीवन देखना चाहते है जो असल में हो रहा है क्योंकि हमें पता है इंसान ऐसे ही करते हैं।”
और यही कला के मूल उद्देश्य है इंसान होना और अपने सामने इंसानों की कहानी देखना और वही हम भूल जाते हैं।
तो कारोबार तो है ही पर उस कारोबार पर एक सीमा निर्धारित करना बहुत जरूरी है। ताकि हम सिर्फ कारोबार में ना रह जाएं, जो असल में संवेदना कहीं से ली या महसूस की, उसको उसी रूप में बिना किसी व्यापारीकरण के लोगों तक पहुँचाया जा सके ताकि उसके पीछे जो भाव है, जो दुःख या सुख महसूस हुआ उसे जस के तस उसी रूप में दरशाया जाए उस समाज की हक़ीक़त दिखे।
असल में एक कलाकार और एक इंसान के तौर पर आपका यही काम था।
ये कुछ चीजें मेरे अंदर कहीं नहीं कुलबुलाहट सी मचा रही थी इस लाइन को पढ़ने के बाद आपके भी कुछ विचार होंगे तो आइये इस पर संवाद करते हैं ।
मैं लेखक नहीं हूँ पर लेखक का किरदार बहुत पसंद है मुझे, तो जब भी मैं इस किरदार से ऊब जाता हूँ तो लेखक का लिबास पहन कर किरदार बदल लेता हूँ।
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