निर्मल वर्मा के बहाने – एक लेख

निर्मल वर्मा के बहाने – एक लेख

क्या हम कभी भी वैसा लिख पाते हैं जो हमने लिखने से पहले सोचा था कि हम ऐसा लिखेंगे? आखिर हमारा असल लेखन कौन सा होता है – जो हम सोचते वक़्त लिखते हैं या जो हम लिखते वक़्त सच में लिखते हैं? पर इस सवाल का यह जवाब कितना सही है कि असल में दोनों ही अपने अपने समय(क्षणों) का सत्य होते हैं और क्यूँकि सत्य क्षणिक होता है इसलिए दोनों ही अपने होने में पूरे और जीवित होते हैं उस वक़्त।

Hitchhiker’s Guide to Galaxy | Universe and Every Theory

Hitchhiker’s Guide to Galaxy | Universe and Every Theory

जैसे ही कोई ये समझ लेगा कि universe क्यूँ बना, इसका काम क्या है – वैसे ही ये वाला universe गायब हो जाएगा और इसकी जगह दूसरा universe आ जाएगा – जो पहले वाले से कई गुना ज्यादा कठिन यानि कि complex और bizarre होगा।
ऊपर वाली theory से related theory है – कि ऐसा कई बार हो चुका है।

मैं और कृष्ण | यथार्थ लिखने पर बातचीत

मैं और कृष्ण | यथार्थ लिखने पर बातचीत

निर्मल वर्मा ने कहा है – “जब हम कहानी में लिखते हैं, वह सितंबर की एक शाम थी – मैं उस सूनी सड़क पर चला जा रहा था, तब इस पंक्ति के लिखे जाने के एकदम बाद कुछ ऐसा हो गया है, जो शाम से बाहर है, उस सूनी सड़क से अलग है। वह ‘मैं’ उस व्यक्ति से अलग हो गया है, जो उस शाम सड़क पर चल रहा था। उस वाक्य का अपना एक अलग एकांत है, जो उस शाम की सूनी सड़क से अलग है। शब्दों ने उस शाम को मूर्त करने की प्रक्रिया में अपनी एक अलग मूर्ति गढ़ ली है, जिसकी नियति उस व्यक्ति की नियति से भिन्न है, जो ‘मैं’ हूँ।”

संवेदनाओं के व्यापार में संवेदनाएं | विचार

संवेदनाओं के व्यापार में संवेदनाएं | विचार

अभी दो दिन पहले मैंने नीलेश मिश्रा जी द्वारा संचालित डॉ कुमार विश्वास का Slow interview देखा तो उसमें सबसे ख़ूबसूरत एक पंक्ति सुनी “ संवेदनाओं के व्यापार में संवेदनाएं धीरे धीरे कारोबार बन जाती हैं ” ।

मझे बहुत ही ख़ूबसूरत और एक दम सत्य लगी ये लाइन कि हम लोग जाने-अनजाने अपनी भावनाएं और अपनी अनुभूति को बेचने लगे हैं। हर व्यक्ति एक न एक स्तर पर ये कर रहा है – चाहे फिर वो क्रिएटिव लोग हों या हम जैसे सामान्य आदमी। कुछ हद तक ये ठीक भी है पर उसका दायरा कितना हो, ये तो तय करना होगा ना!