बाल्टी (मानव कौल)

वक्त बीतते-बीतते निचोड़ता चलता है एक बाल्टी तुमको। बाहर आँगन में जो कपड़े सूख रहे हैं-मेरे पुराने कपड़े-वे तुम्हारी याद का पानी छोड़ने को तैयार नहीं हैं। कुछ पुराने कपड़े जो वड़ी कोशिशों के बाद सुखा चुका है, वे भी बड़े जिद्दी निकले। वे इतनी धुलाई के बाद भी तुम्हारी खुशबू को छोड़ने का नाम नहीं लेते। गुस्से में आकर जब नए कपड़े पहनता हूँ, तो खुद को ही पराया लगता हूँ। थक-हारकर वापिस पुराने कपड़ों के पास जाता हूँ, तो वे शिकायत नहीं करते। वे मेरे शरीर पर कुछ इस तरह आकर गिरते हैं, मानो तुमने बहुत दिनों बाद मुझे गले लगाया हो। मैं एक बाल्टी पानी में पुराने और नए दोनों कपड़ों को आजकल एक साथ गलाने डालता हूँ-इस आशा में कि काश दोनों अपना थोड़ा-थोड़ा रंग एक-दूसरे पर छोड़ दें, ताकि मैं परायों में अपना लगू और अपना थोड़ा पराया हो जाए।

~ मानव कौल

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