अज्ञेय - पचास कविताएँ | अंश

अज्ञेय उर्फ सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍स्‍यायन जी हिन्दी साहित्य के दिग्गजों में से एक हैं। उनकी कविता ने जो नया आयाम छुआ था वो अभी नई पीढ़ी के लिए inspiration का काम करती है। उनकी नई कविताएँ और समाज की व्यापक दृष्टि ने भारतीय साहित्य जगत में एक नया मुकाम हासिल किया था। 

अज्ञेय जी की किताब पचास कविताएँ -नई सदी के लिए चयन पढ़ी है। और इसमें उनके जीवनकाल की कुछ खास पचास कविताएँ हैं। 

बहुत सुंदर हैं सारी कविताएँ। लेकिन हर सुंदर दृश्य में से कुछ ऐसा होता है जो कुछ ज्यादा ही सुंदर होता ही। बस वही साझा कर रहा हूँ। 

अज्ञेय जी की किताब पचास कविताएँ -नई सदी के लिए चयन के कुछ अंश

आओ, बैठो। 
तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे,
बस,
नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की।

कभी कभी शिष्टता रिश्तों में hurdle बन जाती है। तब प्रेम सरीखा स्नेह चाहिए होता है वो hurdle cross करने के लिए। बस उसी के ऊपर हैं ये lines.


आज नहीं, कल सही 
चाहूँ भी तो कब तक छाती में दबाए यह आग मैं रहूँगा?
आज तुम शब्द न दो, न दो - कल भी मैं कहूँगा।

कला भीतर से फूटती है। उसको कोई कितना रोकेगा? है ना?

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वही एकांत सच्चा है 
जिसे छूने मैं चलूँ तो मैं पलट कर टूट जाऊँ।

ये शब्दों में explain करना मेरे लिए मुमकिन नहीं।  बस शब्द हैं और उनका मौन है। पढ़ो, टकराओ और टूट जाओ।


मैं सच लिखता हूँ:
लिख-लिख कर सब
झूठ करता जाता हूँ।

पढ़ो। बार बार पढ़ो। इसका meaning हर व्यक्ति के लिए अलग होगा। और यही शायद इन lines की सार्थकता है।


न मुझे देखते हैं जो नाचता है 
न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ
न खंभों को जिस पर रस्सी तनी है
न रोशनी को ही जिस में नाच दीखता है :
लोग सिर्फ नाच देखते हैं।

क्या ये आज के या कह लो सारी दुनिए के हर समय के समाज की विशेषता नहीं रही। सबको नाच देखना है –  चाहे वो निजी ज़िंदगी का नाच हो या कला का। नाच के आस पास की चीजों पर सब आँख मूँद कर बैठे हैं।

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शहरों में होते हैं 
दूसरों के घर
दूसरों के घरों में
दूसरों के घर
दूसरों के घर हैं।

गाँव में अपने घर होते हैं। शहर में जो परायापन एक गाँव से आया आदमी महसूस करता है वो यहाँ दिखता है।


कितनी दूर जाना होता है पिता से 
पिता जैसा होने के लिए !

कितने समय बाद समझ आता है कि आप खुद अपने पिता बनते जा रहे हो। जीवन के किन्ही हिस्सों में उसकी झलक दिख जाती है।

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मैं सभी ओर से खुला हूँ 
वन-सा, वन-सा अपने में बंद हूँ
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
मैं सन्नाटे का छंद हूँ।

कविता मौन की खोज है।


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